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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ९३ गंग अठारह कोस सथांनत, न्हांवन जात सदा मन भाई। प्रौढ़ भये तउ नेम न छाड़त, पेम लख्यौ निसि भाबत लाई। खेद करौ मति मानत नांहि न, आइ रहौं इतके सलखाई। अंबुज फूलत मोहि निहारिहु, भांति भई वह जांनि सु ाई ॥२५१
तिलोचनजो को मूल इंदव संत इसो' सद-रूप ह साहिब, आप तिलोचन तूं गुदराई। छंद मैं हू अनाथ रहूं बृति काहूं के, जो कोइ प्रीति निबाहै रे भाई।
दास तिलोचन ले ग्रह पाये हैं, रामकी पै तब रोटी कराई। राघो कहै जन के हित को अन, सुद्ध मैं रामोटी सोलक पाई ॥२०४
टीका नाम तिलोचन दोइ ससी रिव, नाम बखांन करयौ जग माहीं। नाम कथा बर पीछ कही हम, दूसर की सुनियौ चित लांहीं। बंस महाजन के प्रगटे जन, पूजत है तिय गोढ़िकर न रहांहीं। चाकर नांहि न संत लखै मन, सेव करै उर मैं हरखांहीं ।।२५२ रूप धरचौ भृति को हरि आपन, जीरन कंबल टूटी पन्हैया। बाहरि आय र बूझत है जन, मात पिता नहि गांव जन्नैया । तात न मात न भ्रात न गाव न, चाकर रौं-ज सुभाव मिल्लया । बात अमिल्ल सुनाइ कहौ सब, खांउ घणौं अन नारि रसैया ॥२५३ च्यारि बरन्नहु रैसि सबै कर, लार न चाहत एक करांऊ । संतन सेवत बीति गये तन, नौतम नांहि न बरष बताऊं। नांम हमार सु अंतरजांमे हि, दास तुम्हार-स तोहि धपांऊं। पांहनि कंबलि नौतम देवत, आप नुहावत मैल छुटाऊं ॥२५४ दास कहै तिय दासि रहौ इन, है न उदास-स पासि रहावै । जोम सु थाहि जिमाइ निसंकहि, जीवत है स मिले हरि गावै। संतहि आवत त्यांह रिझावत, दावत पावस वाहि लड़ावै । मास बदीत भये सुं तियोदस, ऊठ गये कछु बात कहावै ॥२५५ जात भईस परोसनि के तिय, बूझत गात मलीनस क्यूं है। हंसि कहै इक चाकर राखत, धापत नांहि डरूं सुनि यौं है।
१. असो।
२. गोटि।
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