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राघवदास कृत भक्तमाल
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रूप अप प्रगट्ट करयौ छबि, को बरण थकि जात लखायौ । सागर गागर मांहि न मावत, नागर कौं भजि पार न आयौ ।।३१५ पांवन. पैज रहैत सनातन, तीन दिनां पय ल्यात पियारौ। सांवर रूप किसोर रहौं कत, भ्रातहु च्यारि पिताहि बिचारौ। ग्रांमहि बूझत पातक हूं नहि, देखि चहूं दिसि नैन भरारौ। आइ मिले अबकै कबहूं फिरि, जान न द्यौ सिर लाल पगारौ ॥३१६ सांपनि रूप सिखा द्रिग देखि र, जांनि सनातन काबि बिचारौ । झूलत फूलत है द्रुम डारनि, सो सर तीर हलांन निहारौ। आइ र भ्रातक दे परदक्षण, आप डरै सिर लै पग धारौ । भ्रात उभै सु अपार चिरित्रनि, पेखि जगे जग बात उचारौ ॥३१७
छपै
श्रीजीव गुसांई अध्व बड़, श्री रूप सनातन भजन जल ॥टे० प्रेम पालि परपक्क, प्रांन बिधि फूट नांहीं। जुगल-रूप सूं प्रीति, बसत बृन्दाबन मांहीं। प्रखंड अक्षर मन लग्यौ, कलम पुस्तक कर राजै । सास्त्र बेद पुरांन सार, उर मधो बिराजै । राघो रसिक उपासना, संसा काटन अति सबल । श्रीजीव गुसांई अध्व बड़, श्री रूप सनातन भजन जल ॥२२१
टोका ग्रंथ रचे बहु गृथनि छेदक, प्रात जितौ धन लै जल डारै। सेव करें जन पात्र न दीसत, मैं जु करो कटु कोप उचारै। गौरव संत बढ़ाई सिखावत, बोलत 'मिष्ट निसा-दिन सारै। कौंन करै निरबेद निरूपण, भक्ति चरित्र करे सु अपार ॥३१८
छपे
गोबिद इष्ट सिर भक्त भूप, मधुर बचन श्रीनाथ भट ॥टे० श्रुति संमृत सास्त्र पुरांण, भारथ ही खोले । श्रब ग्रंथन को सार, आप पारा ज्यू जोले ।
१. लखायो। २. काछि। ३. जज्ञ ।
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