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चतुरदास कृत टीका सहित
मनहर
चंद
मनहर
चंद
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स्वांमदास की मूंठि, मंडी निरगुरण सूं न्यारी । सिष उपजे सिरदार, भक्ति रसि श्राई भारी । ये पचवारै प्रसिधि भये, बड़े महंत दिगपाल द्वै' । राघो रहरिण सराहिये, सुबित सिरोमनि दिपत वै ॥ ४३१ आनंदास अनन्य प्रतीत श्ररि इंद्रीजित, पायौ बित प्रगट प्रकास्यौं हिरदा मैं हरि । पांच तत तीन-गुरण येक रस कीये जिन २,
नृगुन उपास्यौ निराकार निहि क्रम करि । निरबृति सूं नेह धरि देह से पारी टेक,
बाह्यौ बैराग व्रत जीवत जनम भरि । राघो कहै भयौ बर उर ऊंकार करि,
मनहर
हरि हरि करत हजुरी भयौ पास कौ ॥ ४३३ कान्हड़दास को मूल
इंदव कान्हड़दास कला लीयें प्रतरचौ, पंथ निरंजन के पग धारे । छंद मांग भिक्षा र कयौ भक्ष भोजन से प्रतीत हूँ स्वाद निवारे । मांनि घरणी पै मढी न बधाई जू, जांनि तजे क्रम बंधन सारे । राघो कहै भजि रांम भलो बिधि, संगति के सबही निसतारे ॥ ४३४
त्रिगुणी गयौ है तिरि श्रादि अबिगति घरि ॥ ४३२ स्यांमदास को मूल
सूरबीर महाधीर दिपत हिदा मैं हीर,
ब्रिकत बंराग मैं सुभाव स्यांमदास कौ । ऊंची दिसा रहरिण कहरिण ऊंची ऊंचौ मन,
गह्यौ मत मगन ह्वे अगम प्रकास कौ । रटत रंकार बारंबार रत रोम रोम,
धारयौ जगि जोग यौं निरोध सासै-सास कौ । राघो कहै रांम कांम स्यप्यौ तन धन धोम,
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छंद
१. है । २. उन ।
पूरणदासजी को मूल
पूरण प्रसिधि भयो पिंड ब्रह्मंड खोजि,
कल मैं कबीर धीर धारचौ गुरम सत कौ ।
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