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राघवदास कृत भक्तमाल
दीरघ सोग बियोग भयौ गुर, राम मिलाप सरीरहि राखै । घाट बुहारत न्हांवन को निति', बेर लगी रिष आवत पाखै । लागि गयौ तन क्रौध करयौ बहु, न्हांन गयो सिवरी पग नाखै। रक्त भयो जल मांहि लट लट, नौतम सोच भयौ सब भाखै ॥३५ ल्यावत बेर वसेर लगी हरि, चाखि धरै फल रांमहि मीठे। मारग नैन बिछाइ रहै रघुराई चले कब आइसि ईठे। देखत भाग घणे दिन वीतत, दूरि गये दुख आवत दीठे। नूंन सरीरहि जांनि छिपि किहि, बूझत प्रापन स्यौंरि कईं ठे॥३६ बूझत बूझत आइ रहे जित, राम सनेह भरे तित स्यौंरी । आश्रम मैं तब जांनि लये हरि, अंग नवावत लावत त्यौरी। आप उठाइ मिले भरि अंकन, नैन ढरै जल प्रेम पग्यौ री। बेरन खाइ सराहत भोजन, और कहूं न सवादि लग्यौ री ॥३७ सोच करै रिष आश्रम मैं सब, नीर बिगार सह्यौ नहि जावै। आवत राम सुने बन मारग, जाइ बसै उन भेद सुनावै । आज बिराज रहे सिवरी-गृह, मांन मरयौ सुनिकै दुख पावें। जांइ परे पग तोइ करौ सुछ, पाव गहौ भिलनी सुध भावें ॥३८
जटायु को टोका रांवन सीतहि जात हरें खग, राज सुन्यौ सुर दौरत आयौ। राड़ि करी तन वारि हरी परी, प्रांन रखें प्रभु देखन भायो । आइ र गोद लयो द्रिग नीरन, सींचत बात कही रजरायो। मांन करयौ दसरत्थ समां जल-दांन दयो पुनि धाम पठायो ॥२६ और को गोद धरै अखियां जु भरै, हरि छांह करें मुख धोइ निहारें। पूंछत पक्ष न लक्ष न हैं छत, वा इक चुंगल चौंच सुधारें। मोचत प्रांसुन सोचत रांम, सह्यौ दुख मो-हित गीध बिचारें। आपन हाथन श्रीरघुनाथ, जटायु की धूरि जटांन सु झारें ॥४०
राघो जू को असे जगदीस जन कारनैं जरायो मुनि, मनहर
ईश्रज बढायौ उनि प्राय अंबरीष को।
१. निसि।
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