________________
चतुरदास कृत टीका सहित
[ १७ कोप्यौ मुनि काल-रूप बरत न छाडै भूप,
कष्ट सहयौ तन निज धारचौ ध्रम ईष को । जन परि कोपत[भु] जुलाह ल चिराक्यौ चक्र,
प्रांनि के परयौ है बक्र ागि उद भीष को। राघो दुरबासा दुख पायो प्रति क्रोध करि, फेरचो तिहूं लोक हरि मांन मारयौ तीष कौ ॥३६
टीका इंदव कौंन करै अमरीष बरोबरि, भक्त इसौ उर और न आसा। छद संतन पैं कछू सीख सुनी नहि, बैंचि चलात जटा दुरबासा।
काल-सरूप उपाइ लई, पठई जन पैं वह धीर हुलासा। चक्र रिषाइ र राख करि रिष, भीर परी डरिकै अब न्हासा ॥४१ जावत लोकन लोकन मैं मम, जारत चक्र सहाइ करौ जू । संकर वै अज इंद्र कहै यम, बांनि बुरी उर बेद धरौ जू । जाइ परयौ परमेसुर पाई, कहै अकुलाइ सु ताप हरौ जू । भक्त अधीन मनूं गुन तीनन, भक्त-बछल्ल बिड़द्द खरौ जू ॥४२ संतन को अपराध करौ तुम, जात सहयौ किम भौ अति प्यारे। बांम धनादिक त्याग करै सुत, मोहि भजै दिन राति बिचारे । साच कहौं उन साधु बिनां रिष, औरन सौं दुख जाइ न टारे। बेगहि जा अमरीष कनै मम, भक्त दयाल करै जु सुखारे ॥४३ होइ निरास चल्यो नृप पास, उदास भयौ पग जाइ गहे हैं। भूप लजात करै सनमांनहु, चक्र' दिसा ढरि बैंन कहे हैं। भक्त न चाहत और पदारथ, ब्राह्मन राखहुं कष्ट सहे हैं। ब्याकुल देखि सहाइक संतन, आइ गई मनि तेज रहे हैं ॥४४ भूप-सुता अमरीष सुने जन, चाव भयो उनहीं बर कीजै । मात पिता न कही दिल लासिक, पत्ति कीयो उर को लिखी दीजै । कागद ब्राह्मन दै पढ्यो कर, लैं नृप बांचिति याहि न धीजै । जाइ कहै उन जोइ घनी वत, बोल सुहाईन भक्ति भनीजै ॥४५
१. चत्र ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org