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राघवदास कृत भक्तमाल
भूप-सुताहि कहै दुज नाटत, पौंन समांन गयो अर प्रायो। फेरि पठावत जांनत पैलहि, भक्त बड़ी बिषिया न लुभायो। जाइ कहौ मन भक्ति रिझावत, मांनि लयो पति और न भायो। मोहि न अादरि है मन बाचक, प्रांन तजौं कहि के समझायो ॥४६ ब्राह्मन जाइ कहो सुनि ब्याकुल, खग्ग दयो नृप फेर फिरावो। ब्याहु भयो न उछाह समावत, देखि छिबी अमरीक सुभावो। नौतम मंदिर जाइ उतारहु, चाहि जिको वह हीन वड़ावो। पूरब भक्ति हुती हमरं तुछ, या करि भाव बध्यौ र मिलावौ ॥४७ सेस निसापति मंदिर मैं लुकि, मांजत पातर देंत वुहारी। लेपन धोवन दीपक जोवन, प्रेम सनेह लग्यौ अति भारी। भूपति देखि निमेख न लागत, कौंन चुरावत सेव हमारी। तीन दिनां मधि जांनि कही उन, जो मनि मूरति ल्यौ सिर धारी ॥४८ मांनि लई मनु मंत्र दयो यह, भोर भये सिर सेवन ल्याई। बस्तर औ पहराइ अभूषन, देखि रहै द्रिग चीर बहाई। राग र भोग करै अतिभांवन, भक्ति बधी पुर मैं सब छाई । भूपति कांनि परी चलि आवत, देखन कौं बुधि हूं अकुलाई ॥४६ पाव धरै हरवै हरवं कब, देखत मैं उन भाग भरी कौं। चालि गये अलि ठीक नहीं कछु, गाइ रही द्विग लाइ झरी कौं। बीन बजावत लाल रिझावत, त्यू अति-भावत धन्य घरी कौं। दूरी रह्यौ नहिं जात गयो ढिग, देखि उठी गुर-राज हरी कौं ॥५० बीन बजाइ र गाइ वही बिधि, कान परै सुनि हूँ मन राजी। भीजि रही सु कही नहि आवत, चित्त चुभ्यौ मधुरै सुर बाजी। फेरि अलापि र तान उचारत, ध्यान मई मति लै हरि साजी। भूपति प्रेम मगन्न रह्यौ निसि, भौर भई सब और कहाजी ॥५१ बात सुनी तिय और न ब्याकुल, कौन समां उन भूपति मोह्यो। आपन हूं निति सेव करैं पति, मत्ति हरै बिरथा तन खोयो। भूप सुनी मन मांहि खुसी अति, चौंप लगी पुर धामनि जोयो। चाव बढ़े दिन-ही-दिन नौतम, भाव तिया गुन यौं सुख होयो ।।५२
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