SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट १. [ २५१ बीब रु लौंड पुकारत आतुर आत दया हिय पाहण ही है । राघवदास अनाथ यूं दाक्रत साध दुखावन को फल ली है ॥४४४ पृष्ट ६३, मूल पद्यांक २०४ के बाद दीन द राम रहे जन के गृह. प्रीति तिलोचन की मन भाई। वात अज्ञात लखै मन की, ग्रह को सब काज करै सुखदाई। एक समै कहुं दासिक दूखन, पीस पोवन की मन आई । 'राघौ' कहै निज रूप निरन्तर, द्वै गये सेवक कों समझाई ।।४७७ पृष्ठ १३७, टीका पद्यांक ४१६ के बाद - मनहर शंकर के शिष्य चारि जातें दस-नाम यह, • छन्द स्वरूपाचारज के द्वै तीरथ रु पारनैं । पदमाचारज के जु दोय शिष शूरवीर, आश्रम रु वन नाम ज्ञानी गुन जार नैं । त्रोटकाचारज के सु तीन शिष्य भक्त-ज्ञानी प्रवत सागर गिरी तुरू सेय वार नैं। पृथीधराचारज के राघौ कहै तीन शिष्य, सरस्वती, भारती, पुरी दश-नाम वारनें ।।७१६ पृष्ठ १४०, पद्यांक २८१ के बाद टोका इंदव मांग हुती सुत की नृप व्याहत, रूपवती अति बुद्धि चलाई । छंद खेलत गैंद गई दुरि ता घर, दौरि गयो तिस लेनहि जाई । देखत रूप अनूप महा अति, बांह गही संग मोहि कराई। हाथहि जोरि कहै मुख सूकत, बात अजोगि कहो जिन भाई ।।७३० त्रास दिखावत मारि डरावत, एक न भावत शील गह्यौ है। जोर करयो निकस्यो झट छुटिक, चालत दाव न फारि लडो है। रूसि रही नृप पावत बूझत, कैत भई सुत भोग चह्यो है। क्रोध भयो नृप हो तिय को, जित न्याव न बूझत मूढ बह्यो है ॥७३१ नीच बुलाय लय कर पांव हि, काटि कुवा मंहि डारि सु आए। राम भजे करुणा हि करे, गुरु गोरख पाय रु बोल सुनाए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy