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राघवदास कृत भक्तमाल
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चात्रिग को सौ टेर, कहि गदगद है वाणी।
रांम मंत्र निज जाप, देइ उधरै बहु प्रांरणी। जन राघो अनभै उमंगि जल, पाप पीयौ औरन पयौ। कबीर कृग कौं धारि उर, पदमनाभ प्रचै भयौ ॥१८१
टोका इंदव साह बनारसि कोढ हुतो उन, लट्ट परीतन बूड़न चाल्यौ। छंद आवत हेस पदम्महि बूझत, बात कही कस खोलि न हाल्यौ ।
रांम कहावत तीन बिरयां जन, कोढ़ गयो गुरदेवह काल्यौ । नांव प्रभावन जानत नैं कहु, लैस करै सुध जो श्रुति घाल्यौ ॥१६६ -
मूल छपै जीवा तत्वा२ दक्षण दिसि, प्रगट उधारक बंस के ॥
भक्ति अमृत की नदी, दुहता की दिढ़ पाला। जोर बड़न की रीति, प्रीति सोही वहि चाला। सूरज बंस सुभाव, बहुत गुण धर्म-सील सत । भले सूर दातार, दया परबीन परम मत । राघो जन अंबुज खुले, रवि ससि जोजा अंस के। जीव तत्वा दक्षरण दिसि, प्रगट उधारक बंस के ॥१८२
टीका भ्रात उभै द्विज जीवहि ततहि, सेवत संतन सिष्य भये हैं । रोपत सूठ हरचौ यह होइस, साधन तोइ सु नांखि नये हैं। आइ कबीर दिखाइ हरयौ तर, नेम हुवो सिधि पाव लये हैं। नाम दयो तिनि५ काम बनै कठि, आइ कहो हम वोलि गये हैं ॥२००
है इकठे द्विज बात गई निज, दूरि करे सु सुता नहि लेवै। येक बनारस जात कबीर हि, बात कही सब धीरज देवै। आप उभै सनबंध करौं न, डरौ चित मैं समझौ यह भेवै । आइ करी वहि ज्ञाति डरी उर, नून धरी कहि यौं पग सेवै ॥२०१ यौंहि करै हम अांन न भावत, लेत तिणां मुख टेक तजीजे । फेरि बनारस जा करि बूझत, ब्याह करौ सिरदंड धरीजे।
१. हाल्यो। २. तत्व । ३. तत्वहि। ४. ढूंठ, बूंठ । ५. निठि। ६. धारज ।
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