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चतुरदास कृत टीका सहित
लीन भये परमेसुर पैलहि, देखि पक्यौ फुल' बुद्धि चलाई। प्रीति फली जन राम लई मनि, बात रही दुरमत्ति बिलाई ॥१६८
मूल छपै अल्हरांम रावल दया, राघो कलिजुग जीतियो॥
मोह क्रोध मद काम, लोभ नीरौ नहिं प्रायो। संग्रह जो कछु कीयो, सोई साधन बरतायो ।
आठ मास जल लेत, सूर चौनासै बरसै । सिष सेवग मरजाद, चनावत गुर नहीं परसै । गुर धरमसोल सत पुनि टहल, करत काल इम बीतियो । अल्हगंम रावल दया, राघो कलिजुग जीतियो ॥१७८ हरिदास बांवनौ भगति करि, बांवन सम ऊंचौ बढ्यौ ।
संतन सूं निरदोष रह्यो, सुपर्ने अर, जागत । स्यांम स्वांग सूं प्रीति रीति, यम गुर जिम पागत । भवन मधि निरबेद, जनक ज्यूं लिपता नाही।
चरन-कवल भगवान, बास ले मनमत मांहीं । कुल जोगानन्द परगट्ट कर, रैनि दिवस रांमहि रत्यौ। हरिदास बांवनौं भक्ति करि, बांवन सम ऊंचौ बढयौ ॥१७१ जन राघो रघुनाथ की, भ्रथ सिर धारी पावरी। दक्षन दरावड़ देस, तहां के भक्त बखांनौं । नरनारी गुरमुखी, जथामति जो हू जानौं। सतवादी प्रम-हंस, पुनह श्रीसंत सरूपं । दास-दास री नमो नमो, ब्रह्मचर रथ भूपं । आदि भक्ति अनुक्रम धरम, करहि बेद बिधि द्रावड़ी। जन राघो रघुनाथ की (ज्यं), भ्रथ सिर धारी पावड़ी ॥१८० कबीर कृपा कौं धारि उर, पदमनाभ परचै भयौ ॥
रांम मंत्र निज मंत्र, जाप हिरदै मैं राख्यौ । जप तप तीरथ नाम, नांव बिन और न भाख्यौ ।
१. फल।
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