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राघवदास कृत भक्तमाल
भोजन- बी परकार करावत, संत समू चलि श्रावत द्वारें । बैन सुने तिय मांहि बिनै दुख, होइ दयालहि राखत बारें । मोर धरणी लखि तोर धणी पिषि, कष्ट परै जब कौंन निवारें । लेपन भारन टैल करौ रहि, अंन मिलै द्रिग चालत धारें ।। १६५ बाल' कटाइर सीख दई तब, जात भई पछितात घणी है | पैल समै फिरि पीछे न प्रावत, रीति भली सतसंग तरणी है । सिष करै जन सेव दिढावत, रांम मिलै इम बात भरणी है । मोलि लयौ कवि भाख छपा महि, रीति दिखाइ दई सु बरगी है ॥ १६६
छ ै
खोजोजो को मूल
भाव भगति हित प्रेम सूं, खोजी खोजे रांम कौं ॥
करांहीं ।
काम क्रोध अरु लोभ, मोह की काटी मुरधर देस निवास, पालड़ी गांव समद्रिष्टी सुहृद, साध की सेव श्रगुणी नृगुरणी भक्त, कहूं सूं अंतर नांहीं । अनहद बाजा बाजिया, राघो पावत धांम कौं । भाव भगति हित प्रेम करि, खोजी खोजे रांम कौं ॥१७६ इंदव ज्यौं पित मात के गोहन बालक, रांम समीप यौं खेलत खोजी । छद जे प्रभु के परण धारि बिचारीक, ताहि कहौब दुखावत कोजी । जिनके हिरदै हरि नांम नृमल्ल, जाहि फुरै दसहूं दिसि रोजी । राम सूं रत तजै प्रहित्तहि, राघो कहै सतवादी इसौजी ॥१७७
टीका चातुरदास गुरू-जन खोजहि, मृत्यु समैं उन घंट बंधानीं । राम मिलें हम बाजत है यह, चालत बाजिन चित बढांनीं । अंत समैं न हुते फिरि आवत, सोइ वहां मति अंब रहांनी । ले करि चीरत सूक्षम जीवस, तांतर भयो जब घंट बजांनीं ॥१६७ जोगि भले सिष यौं सब मांनत, है गुर संग्रथ नूंन लखाई । चंचल है मन पौन समागन; रीति लखौ उन ह्वै सरसाई ।
१. काल ।
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२. सांत ।
३. मौंन समागत ।
पासं ।
प्रकासं ।
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