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चतुरदास कृत टीका सहित
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टीका
केवल नामहि संतन सेवत, बंस उधार करयौ जग जानें। साध पधारत हेत करयौ बहु, नाज नहीं घर मैं कछू पाने । लैन उधारि गये जन बैसिहि, कूप खुदाइ तलै मन माने । कोल करयौ अब तो लि सिताब ही, रोल चढ़ावत यौं घर यांनै ।।१८८ खोदत कूपहि रांम कहै मुख, काम भयो मनि वौ सुख पायो । धूरि परी धसि मांहि गये दबि, दूरि करै थल होइ सवायो। होत उदास घरांवह आवत, नांव सुनी धुनि मास बितायो । कूप गये फिरि होत सुनें रव, काढ़न लागत धीर कहायो ।।१८६ रेत निकारिक जाइ लये पग, देखि सबै अति अचरज' प्रायौ। ब्यौर लख्यौ जल कुम्भ पिख्यौ तन, कूब नख्यौ हरि कौं इम भायौ । ध्यावत धाम कहै धनि राम, पुंमां नर बांम भलै जस गायौ । आइ जुरचौ बहु लोग उमंगिर, भाव भयौ उर माल चढ़ायौ ॥१६० मूरति ल्या करि संत पधारत, केवल कै वह रैनि रहे हैं। देखि सरूप भई मन मैं यह, नांहि चलै सु अचल्ल भये हैं। जोर करै मन मांहि डरै जन, हारि चले जब दाम दये हैं। जानि गये उर अंतर की हरि, नांव सुजांनहि राइ कहे हैं ॥१९१ द्वारवती चलि छाप धर भुज, जान न दे प्रभु धांम फिराये। संतन की निति टैल करौ, उर भाव धरौ करिहूं तब भाये। धांमहि संखरु चक्र गदांबुज, चिन्ह भये भुज देखि रिझाये। सागर गोमति संग रह्यौ सुनि, मालहि मेल्हिर दोइ मिलाये ॥१९२ सिष्य प्रसिष्य हुये तिनसू कहि, संतन सेव करौ चितलाई । साध पधारत पाक करै तिय, आपन भ्रातहि खीर कराई। केवल देखिर बुद्धि उपावत, दो घरि दे करि कूप चलाई। सोचत जावत संत बुलावत, खीर परूसि-र बेगि जिमाई ॥१९३ नीर सिताबहि ल्याइ निहारित, देखि उठी जरि भ्रातहु देखै । केवल काढ़ि दई यह साखत, और करयौ भरता दुख पेखै । काल परयौ स पलै नहि टाबर, जाइ रहौं कहु यौं करि लेखै ।
साथि लिये भरतारहि बालक, केवल द्वारि परी सब सेखै ॥१९४ १. पाश्चर्ज, प्राचर्ज। २. ल्याबत। ३. जौनि। ४. देखे ।
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