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राघवदास कृत भक्तमाल
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मूल छपै गुझि लीला रघुबीर की, बिदत करी है मांनदास ॥टे.
सिंगार बीर करणांदि, नृमल रस कृत मधि प्रांने । जनक-सुता बर सुजस, अहोनिसि रहि रंग साने। परमारथ पर्बोन, काव्य अक्षर धर मानतं । चरणांबुज चित ध्यान, येक की संपति मानत । रांमचरित हनुमत कृत, रहिसि उक्ति धरि करि हुलास । गुझि लीला रघुबीर की, बिदत करी है मांनदास ॥१७२ रांम रंगीलो भक्ति निधि, बनवारी बपु प्रेम कौ ॥टे० नौख चौख अति निपुन, बात कबिता मैं चातुर । खीर नीर बिवरन हंस, संतन सम पातुर। सब जीवन सुह्रिद, सनातन धर्म संतोषी।
सुभ' लक्षन गुनवांन, भजत भयौ जीवन मोखी। पातक नासत दरस तें, जु तौ करत निति नेम को। राम रंगीलो भक्ति निधि, बनवारी बघु प्रेम कौ ॥१७३ मुरधर मांहैं झीथड़े, केवल कूबै हरि भजे ॥ करता कीयौ कुलाल, भजन कौं भक्त उपावै । जो नर मिलि है प्राइ, ताहि जन सेव दिढ़ावै । तन मन धन सरबंस, येक प्रभु संतन दीजै।
मनख जनम यह लाभ, और कछुवै नहीं कीजे । मन वच क्रम राघो कहै, भरम करम प्रारंभ तजे। मुरुधर मांहैं झीथड़े, केवल कूबै हरि भजे ॥१७४
केवल कूबा को टीका : मत- संतन के चरणांमत सीत कौं२, लैनि बह्यौ कलि मैं ब्रत कूबा। गयंद (भक्ष) भोजन दै सनमान घरणी गुरण, ग्राही महाबुधि उत्म खूबा ।
पूरण-ग्यांन दयौ निज नृम्मल, पछिम देस भगत्ति को सूबा । राघो कहै पण प्रीति ह्रिदै हरि, धर्म को टेक टरयौ नहीं धूबा ॥१७५
१. सुभग।
२. लौं।
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