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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ४९ रांमांनुज निज तत' कथ्यौ, नृगुरण त्रिवृति निरबांन पद । जन राघो रत राम तूं, ज्यौं दत संगति मुक्ति जद ॥११७
टोका मत- रांम अनुज्जु सु है लखमन्नहि, तास सरूप यहै उर आई। गयंद मंत्र दयो गुर अंतर राखन, जाप करें हरि दीन्ह दिखाई। छद प्राइ दया सबही प्रभु पावहि, गोपुर पैं चढ़ि टेरि सुनाई।
जागि परे तिन सीखि लयो वह, भैतरि मुक्ति भये सिधि पाई ॥६३ जात भये जगनाथहि देखन, जांन असोच पुजारि उठाये । साथि हजारन लै सिष सेवत, पूजन विजन भाव दिखाये । श्री जगनाथ कहै वह भावत, प्रीति खुसी सब और बहाये । बात न मानत वसहि ठांनत, पागम और निगम सुनाये ।।६४ जब्बर संतहि जोर न चालत, सौक कही फिर खेल पिखायौ। बाहन सूं कहि जाइ धरौ इन, ले सब कौं धरि द्राविड़ आयौ। आंखि खुली जब देसहि देखत, गोपि मतौ प्रभु कौ किन पायौ । पूजन वैहि करै अजहूं निति, रीझत भावहि और न भायो ।।६५
संत च्यारि दिगपाल, चहुं भोमि भक्ति चांपें भलें ॥ श्रुति-धांमां श्रुति-वेद, पराजित पहुकर जांनूं । श्रुति-प्रज्ञा श्रुति-उदधि, ऋषभ गज बावन मानूं । रांमांनुज गुर-भ्रात, प्रगट अानंद के दाता ।
सनकादिक सम ज्ञान, संक्र संघिता सु राता। वुधि उदार इंद्रा पधित, सत्रु चलायें ना चले। संत च्यारि दिगपाल चहुं, भोमि भक्ति चांपें भले ॥११८ रामानुज जा-मात को, बात सुनत हरि भक्ति ह ॥टे० संत रूप सब कोइ, चल्यौ परिणी मैं प्रावै। दग्ध कोयौ ज्यूं भ्रात, कुटंब दल देइ बुलावै । भू-सुर करी गलांनि, सुरग सुर लीये बुलाई। देखे जीमत सबनि, जात नहीं दिई दिखाई।
१. नितन । २. मूजन ।
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