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राघवदास कृत भक्तमाल दौरि गये नृप सांम्हन आवत, पांनि भयौ फिरि भौ सुख भारी। दोन प्रसाद भयौ कर को चढि, है निति राम सुगंध पियारी ॥४२३
श्री करमाबाई को टीका ही करमां इक बांम भली, खिचरी बिन रीतिहि भोग लगावै । भौजन श्री जगनाथ करै निति, भोग जिते तिन मैं वह भाव । संत गयौ इक सोच करै लखि, स्वास भरै र अचार सिखावै । साधत बेर लगी पट खोलत, खोच ग्यौ' मुख हाथ दिखावै ।।४२४ साच कहौ प्रभु यौं कत पावत, चित्त भमैं हम देखि नई है । है करमां मम खीच जिमावत, हर निति जावत प्रीति लई है। साध गयौ सु अचार सिखायहु, मो मत और न जांनि भई है। नाथ कहै जन सूं वहि साधहु, जाइ कही फिरि मांनि गई है ।।४२५
सिलपिल्ले प्रभु को भक्त उभैबाई-तिनको टीका सिल्लपिले जुग बांम भगत्ति सु, भूप सुता इक है जमिदार। सेव करै गुर बै ढिग बैठत, पूजन द्यौ हम कौं३ सुकुमारै। . टूक दये सिल नांव कह्यौ वह, हेत लगात करै भव पारै। सेव करै अनुराग बढ्यो अति, रीति भली यह जग सारै ।।४२६ पूरब बात कही मिलवां जुग, रीति अबै सुनि लेहु जुदी है। भ्रात उभै जमिदार सुता उन, बैर लुट्यौ पुर प्राइ मुदी है। पूजन जात भयो दुख पावत, खात नहीं कुछ जाई गुदी है।। से समझावत वाहि न भावत, जा करि ल्यावहु प्रात सुदी है ।।४२७ गांव गई वह भ्रात बड़ौ जित, हौत सभा मधि बात जनाई। लै अपने इक ठौर बिराजत, बोलि सु आवत प्रीति बसाई । लाल भये दग फाटत है उर, पीर पुकार कही तन जाई। अाइ लगे उर दूरि गयो दुख, लै घर आवत अंग न माई ॥४२८
बात सुनौं नृप भक्ति सुता अब, नांहि बिर्ष रति पूजन लागी। .., साखत कै घर ब्याहि दई उह, लेनहि प्रावत या प्रभु रागी।
संगि दई करि रंगि छई हरि, नांहि सखि ढिग पै लहु त्यागी। प्रात कनैं पति चाहत है रति, बोलि कही जु बिथा मम पागी ॥४२६
१. लग्यो।
२. हां।
३. कं ।
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