________________
चतुरदास कृत टीका सहित
[ १४५ दें हम कौं कहि कौन बिथा उहि, बेगि इलाज करै सुख कीजै । चाहत हौ सुख भक्ति करो मुख, भक्ति बिनां मम देह न छीजै। क्रोध भयो मन मांहि बिचारि, पिटारिहु मैं कछ दूरि करीजै ।
वैह करी मुसि नोर धरी तन, आगि बरी मन मैं बहु खोजै ॥४३० त्यागो दयौ जल अंनु खुसी हुन, चाहत खुसी नहि है सब लीयो।
आइ लयो पुर बात कही धुर, क्षीन लख्यौ तन क्यूं हठ कीयौ । सास कहैं सब नांहि चहैं अब, बात सुहात न कंपत हीयौ। कैस करै तब पाइ परै कहि, ल्याइ धरै बह तब जोयौ ।।४३१ आत भये उहि ठौर परी लखि, नीर बहै द्रग ऊंच पुकारी। स्यांम सुन्यौ सुर भक्तन के बसि, अाइ लगै उर सैत पिटारी। सास धरणी जन देखि भये खुसि, वादि गए दिन आपन धारी। भक्त करे सब सेवत संतन, भाग बड़े घर मैं अस नारी ॥४३२
भक्तन हित सुत विष दीयौ, येहु उमे बाई संतन के हित और दयो सुत, बांम उभै यह बात जितावै। भक्त भलौ नृप प्रान घणे जन, आइ रहे इक म्हंत सुभावें। ऊठत है निति जान न दे नृप, बीति गयो वष भोर खिनांवे । टूटत आस लख्यौ तन छूटत, बूझत है तिय बात जनांवें ॥४३३ भूप न जीवहि और दयो सुत, साध सुं तंतर क्यूं करि राखें । भौर भयें विन रोई उठी तिय, रावल के जन संतन भाखें । खौलि दयी कटि मांहि गये झटि, बाल पिख्यौ बप नीलक दाखें । बूझत भूपति या कहि साचहि, चालत हे हमरै अभिलाखै ॥४३४ रोइ उठे सुनि महंत न बोलत, भक्तिहु की कछु रीति नियारी। जाति न पाति बिचार कहा रस, सागर लीन भये सुखकारी। गाय हरी गुन साखि कही जन, बाल जिवाई र ठौर सुधारी। सीख दई सब साधन कौं र, हियें वह सो जन प्रीति पियारी ॥४३५ दूसर बात सुनौं मन लाइ र, जीवत लौं सतसंग करीजै । भूप सुता हरि-भक्त' दई घर, साख तक जन नांव न लीजै । सीत पल्यौं तन रूपहि ले द्रग, जीभ चर्णामृत स्वादहि भीजै। सौ अकुलाइ रह्यौ नहि जाइ, वसाइ नहीं सुत कौं विष दीजै ॥४३६ :
१. भक्ति ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org