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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ४१ बात सुनौं नृप गात तिया सुत, चीरहि भोरहि नांहि न भाखे । सीस करीत धरयौ सु चिरयौ मुख, नीर ढरयौ द्रिग भीर न चाखै । छोड़ि चले गहि पाव कहै इम, रोवत है बिन कांमहि नांखै । नैन लये भरि रूप धरयौ हरि. दूरि करयौ दुख है अभिलाखै ॥८० धौंस कहा अति मोहि रिझाइहु, रीझि दिये बिन मोउ रसालं । लेहु चह्यौ बर साटि न चूकत, सूकत है मुख देखि बिहाल । भूप कहै तुम दीन-दयाल, करै कछू नून लखौ सु बिसालं । देहु यहै बर मांगि सिताब, करौ मति पारिष यौं कलिकालं ॥८१
अलरक की टोका मैं अलरक्क सु बात बखानत, ग्यांन दयें नहि जाइ बिर्ष है। जन्महि आइ मंदालस के तन, सो ग्रभ वासहि नांहि पिषै है। पीव कहे लघु छोड़ि गई बन काढ़ि' लयो नृप त्रास दिले है। छाप उपाडि र बांचि सिलोकन, दौरि गयो दत देव नखै है ।।८२
रंतदेव की टोका देवसु रंतकुले दुसर्कतहु, बृत्य अकासहि धारि लई है। खात नहीं बिन दीन अभ्यागत, वास करै यह बात नई है।
अठचालिस द्यौस मिली रिधि, ब्राह्मन शुद्र सुपाक दई है। रांम बिचारी चहूं जनमैं हरि, देन लगे दुख देहु कही है ॥८३
[मल] छपै जन राघो निज नवधा भक्ति, करत मिट जामण मरण ॥टे०
श्रवरण परीक्षत तरचौ सबद-धुनि सुख मुनि गावै । चरण पलौट लक्ष प्रादि, अब गतिहि रिझावै ।
सिंगः सर्वात्मनां त्याज्यो, यदि त्यक्त न शक्यते । स एव सत्सुं कर्तव्यः, संतः संसारभैषजं ॥१ कामः सर्वात्मना हेयो, यदि हातुं ना शक्यते । स कर्तव्यो मुमुक्षाय, सैव तस्याभिभैषजं ॥२ सकूली मीता माग कन्या ।
१. काटि।
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