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भागवतं प्रकासं ।
देह' दधीच दई सुरपत्ति है, भर्त सु बिप्र सुदर्सन है इतहासहि, देत तिया जन और न दासं ॥ ७३
रुक्मांगद की टोका
सुरग्गहि भागी ।
बाग पहौपन छाइ रह्यौ सुभ, देवतिया वह लैनहि प्रांहीं । बैंगन कंटक पाव लग्यौ इक, बैठि रही सुनि कैं नृप जांहीं । बात कहौ श्रुरगलोक पठाइत, ग्यारसि वास दयें सुख पांहीं । ग्राम न जानत होत कहा व्रत, काल्हि रही इकठी कबि नांही ॥७४ डौंड फिरें इक लौंड़ निक्क हु, मारि हुतो अन खाइ न जागी । भूपति कै ढिग ल्याइ दयो ब्रत बैठि बिमान देखि प्रभाव हि भूप बिचारत, या दिन अंन यौं नर-नारि करै व्रत जाबक, जाइ पुरी सुरगापुर लागी ।। ७५ ग्यारस को व्रत सत्य करयौं नृप, बात सुनौं इक तास सुता की । लेन पिता पुर आइ सुयंबर मांगत न खुध्या प्रति पाकी । देत नहीं हरि बासु र जांनत, आजि मरै गति भल यांकी । प्रांत तजे उन बेगि मिले प्रभु, भाषि कही पन रीति तिया की ॥७६
भखै स प्रभागी ।
राघवदास कृत भक्तमाल
मधु की टीका
रोग भयो ग्रभ अर्जन कै प्रति कृष्ण जु जांनि दयो रस भारी । है मम भक्त सु तोहि दिखावत, बालक बृद्ध भये ब्रह्मचारी | जाइ पहौंचत मोरधुजं गृह, बेगि कहौ नृप बात हमारी । जाइ कही अब सेव करू हरि, बैठ हुयौं सुनि आागि प्रजारी ॥७७ ऊठ चले रिस खाइ गहे पद, जाइ कही नृप दौरत आये । आप दया करि चाहि फलावत, आणि भलौ दिन ये फल पाये । मोहि कहो स करौं प्रवही वह, बैंन रसाल पिऊं द्रिग धाये । रोस गयो सुनि मोद भयो उर, पारिख लैन सु बैन सुनाये ॥ ७८ देन सुने म करौ जु करयौ हम, जो तुम भावत सो मम भाई | स्यंघ मिल्यौ इन बालक खावत, मोहि भखौ कहियौ सुखदाई | क्यूं करि छोड़उ भूपति को तन, आध मिलै मम बात जनाई । बोलि उठितिय मैं अरधंगनि, पुत्र कहै मम द्यौं सुधि श्राई ॥७६
१ सेह ।
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