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राघवदास कृत भक्तमाल नांव नृदोष उचार कीयो असे, दोष मिटे दस देह के भारी। राघो कहै परचौ भयो प्रतक्ष, गूदरी नैक टरं नहीं टारी ॥१५६
टोका
छपै
देव सुमेर हुते गुजरातहि, बैठि बिमान सु धांमहि चल्ले । कील्ह रु मान हुते मथुरा महि, देखि अकास उठे कहि भल्ले । भूप कहै अजु काहि सुनावत, मेर' पिता हरि माहि सु मिल्ले । मांनि अचंभ पठावत मांनस, आइ कही सति पावहि झिल्ले ॥ ७४ यौं हरि प्रीति लई मृति जीति, सनातन रीति सु पूजन कीजै । फूलन हार पिटारि मझार, डसे जन२ ब्यार स फेर कठीजै। तीनहि बेर डसाइ घिरे जन, झेर चढ्यौ नहीं राम भजीजै। संत सभा महि बैठि मिले प्रभु, जोग कला ब्रह्म-रंध्र भनीजै ॥९७५
मूल अग्रदास प्रागर भयो, हरि सुमरन पन प्रेम कौ ॥टे.
बहुत बाग तूं प्रीति रीति, हरि की जिन जारणीं। . नींदै गौंदै आप, आप परवाहै पारणो। जो उपजै फल फूल, सोई प्रभुजी कौं अरपै। साध-लक्षण सा-पुरष, भगत भगवत सूं डरपै । राति दिवस राघो कहै, उदस करत निति नेम को। अग्रदास आगर भयौ, हरि सुमरन पन प्रेम कौ ॥१५७
टोका इंदव भूपति मांन दरस्सण आवत, बाग छयोद रहै सु सिपाही। छंद पात बुहारि गये जन डारन, भीरहि देखि र बैसि रहाही।
नाभहि अाइ प्रनाम करी, जल नैन भरे परवाह बहाही। देखि रह्यौ नृप हारि गयौ ढिग, खीजत चाकर आप कहाही ॥१७६
मुल छपै मन बच क्रम धर्म धारि उर, जन राघो उधरे राम कहि ॥
दिप्यौ दमोदरदास, तिलक गुर को लौ पार्छ। चतुरदास भगवान, रूप मत गह्यौ सु पार्छ ।
१. मोर ।
२. जल।
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