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छंद
चतुरदास कृत टीका सहित
[२३५ मनहर महंत रजब के अजब सिष खेमदास,
जाकै नेम निति प्रति व्रत निराकार को। पंथ मधि प्रसिधि हो देखिये दैदीपमान,
बांरणी को बिनाणी' प्रति मांझी न मै मारि को। रांमति मेवाड़ मै वासी मुख सोहै बात,
बोलत खरौ सुहात बेता वा बिचार को। राघो सारो रहरणी कहणी सुकृत अति,
चैतन चतुरमति भेदी सुख सार कौ ॥५०६ प्रम-पुरष प्रहलाद धनि, देवजोति दिजकुल भयौ ॥
दिपत देह दैदीप, दुती सनकादिक वोपै । दिढ़ द्रिगपाल महंत, परम गुर थप्यो पछोपै । श्रीदादू दादा गुर लगै, सर्बग्य संदरदास गुर ।
यौं निराकार को नेम व्रत, पहुचायौ परलोक धुर। इम राघो रांम परताप तै, प्रारण मुक्ति परमपद लयौ । प्रम-पुरष प्रहलाद धनि, देवजोति दिजकुल भयौ ॥५०७
दादूजी के पंथ मैं दरद वंद देवजोति, छंद
प्रणउं प्रहलादजी प्रहलाद के पटतरै। वह प्रेम वह नेम वह पण प्रीति रीति,
वह मन माया जित मगन महंत रे। वह जत वह सत वह रंग राम रत,
नृमल नृदोष सुखदाई महासंत रे। राघो कहै मन बच क्रम धर्म धारणां तूं,
जीवत मुकति भयो वोपमां अनंतरे ॥५०८ . छपै दादू केरा पंथ मै, चैन चतुर चित चरण हरि ॥
कथा कीरतन प्रीति, हेत सौं हरि जस गाया। साथि र२ रहै समाज, प्रेम परब्रह्म लगाया। गृथ रचे बहु भांति, बिहंगम नामां रूपक ।
सिधि साधिक गुन कथन, जास थें अधिके ऊपक । १. छिनानी। २. साथरि है।
मनहर
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