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१. पुष्ठ
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येकादस अर्बद कीयो है राति दिन राज,
राम न बिसारचौ छिन राघो ताकौवारणं ॥४० नमो भर्थ चक्रबृती जिन कीये नवखंड,
प्रष्ट खंड भ्रातन के ऐक खंड श्राप कौ । सोऊ पुनि पुत्रन कौं दे गयो नरेस देस,
गलका कै तटि जाइ कीन्हौं ब्रत बाप कौ । निमत क्रम पाइ मंजन करत मुनि,
मृगी ग्रभ टारचौ डरि स्यंघ की प्रताप कौ । राघो कहै जदपि जंजाल तजि लीन्हौं जोग,
राघवदास कृत भक्तमाल
मृग छूनां छूवत ही भंग भयो जाप कौ ॥४१ गौंडवारण देस तहां देबिका दिपत ऐक,
छठे मास मांगे बलि मारणस के सीस की । रिषसुते खेतखलै खिज भुज ताके चर, पकरि ले श्राये उन पेसि कोयो ईस की । कराई युष्ट',
भूप रीझ्यौ देखि रूप तुष्ट
श्रष्टमी कौं श्रर्षे मुनि जालपा नै रीस की । राघो देवि देखि रिष नृपति कौ कीनौं नास,
से मुनि मारौं तहू चोरि जगदीस की ॥४२ देबी देखि साहिस स हंस बेर की स्तुति,
तुम्ह रिष इहां इन मूरखन श्राने हौ । तुम्ह भर्थ चक्रबरती हुते चहूं चक मधि, पुनि मृगराज भये तहां हम जाने हो । अब दिज देह पाइ जड़-भर्थं जोगेसुर,
जीवन मुक्ति मुनि मोक्ष पद माने हौ । राधौ रिष ऐक रस मात भई ताकै बसि,
धनि रिष तेरौ मौंन रिके न रिसाने हौ ॥४३ मृग मधि श्रुति रही मृग गयो मृगन मैं, मृग मृग करत ही मृति भई मुनि की ।
२. मोरौं ।
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