SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुरदास कृत टीका सहित छपै छंद मूल मांन देत परमांन नें ॥ साधु को गुरणही लेवे । धांम तन मन धन देवें । माथुर बिठुलदास बर स्वांग संत सूं प्यार, उत्यम मानें भक्त, संतोषी सुध हृदै, बहुत दुसह करम को करें, पुत्र जै जै गोव्यंद हरि नांम, परण माथुर Jain Educationa International [ १५७ परमारथ कीन्हौं । उत्सव में दीन्हों । राघो बांरणी श्रानने । बिठलदास वर मान देत परमान नैं ॥३०० टीका इंदव माथुर भ्रात उभै गुर रांनहि, प्राप मुये लरि त्यां इक छंद जात वीठलदास बड़ौ जन, वै लघु सेवन स्यांम सु भूप कही दिज कौ सुत प्रात न, ल्यांन गये कहि चाह न फेरि बुलात करौ इत जाग्रन, नाचत प्रेम सुकै इक संग गये जन रंग रचे हरि, प्रदर दै उठि तीन खणां परि नृत्य करावत, प्रेम छके गिरिये स्वेत भयो नृप दुष्टन खीजत, बाथ भरें जन ता घरि ल्याये । सु बठाये । तरि आये । भेट करी बहु देह परी सब, सुद्धि भई दिन तीसर गाये ||४८६ मात जनांबत बात सबै निसि, कौनि कसे तजिये सुबिचारी । प्रात छटी कर मैं गरुड़ेस्वर, सेवत है प्रतिमां प्रति प्यारी । भूपति के चर हेरि थके, तिरिया अरु मातहु आइ पुकारी । चाल कही बहु मानत नांहि न, बैठि रही उतही कहि हारी ||४८७ कष्ट तब राति कही हरि, जा मथुरा बर तीनक भाख्यौ । जाति र पांति मिले पुर श्रावत, साध लख्यौ बढही अभिलाख्यो । गर्भवती जुवती धर खोदत, मूरति वोधन पावत दाख्यो । बौलिक बढीस न लै तब, वै सु कही तव रूपहि राख्यौ ॥ ४८८ सेवत है हरि भक्ति गई भरि, सिष्य भये बहु है उर भावें । होत समाज बड़े प्रति श्रावत, राग बिबद्धि गुनी जन गावें । प्रात नटी गुन रूप जटी इक, गात इसी उर बांन लगावै । देत भये पट भूखन भूखहु दीखत / औौरन पुत्र गहावै ॥ ४८६ 1 For Personal and Private Use Only जीयो । लीयो । बीयौ । दीयौ ॥४८५ www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy