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छ
छंद
छपै
छंद
राय रंगि सिष भूप सुता दुख, देखि भयो जलहूं नहीं वाहिक धन चाहि सु लै तव, दे हमरौ प्रभु तो तब द्रव्य न चाहत रीभि चहैं तन दें धन फेरि समाज
गुनीजन कौंधन दे बहु, प्राप कर्यो' नृति देत न लीजै ॥ ४६० डोलहि मैं फिरि ल्याइ रंगी जन, कैत भई बरियां तव आई | नृत्य कर्यो अति बोधन वारत, अंक भरे फिरि दै हुलसाई । मोहि दयो हरि की नवछावरि ले मति नै सिष लेत रमाइ । त्यागि दयो तन पात कहाँ वह, यौं बरनी जन को रसिकाई || ४६१
मूल
हरिराम हठोलै भजन से ज२, रांनां कौउ समझाइयौं ॥ बड़े चतुर दातार, भक्ति प्रेमां जिन जांनीं । रस- सागर गुन गंज, कंठ मैं गदगद बांनीं । संतन कूं दुख देत तास को यह फल भाख्यौ । हरिनकस्यप हति नखन, दास प्रहलादहि स्फुटवक्ता सभा बिचि, काहू सौं न हराइयो । हरिराम हठीले भजन से ज, रांनां कौ समभाइयो ॥ ३०१
राख्यौ ।
टोका इंदव रानहि हेत खिलावत च्यौपरि, न्यासि इसौ जन भूमि छिनाई । छंद साथ ४ पुकारत भारि दयो उन है बिमुखी बसि साच भुठाई ।
सौ हरिरामहि वात जनावत, चालि गैं हम आाबत भाई | पैल गयौ हरिराम पधारत, भारत भूपहि भूमि दिवाई ||४६२
राघवदास कृत भक्तमाल
पीजै ।
जीजै ।
करीजै ।
१. कौ ।
मूल मैं, भक्ति सुमन निरबेद फल ॥ स्यांम, दल्हा पुनि
गरू,
पादप येह जन जगत सीहा खोजी संत जती रांम रावल, मनोरथ द्यौगू जीहा चाचा सवाई जाडा कीता नापा लोकनाथ, सब मेट्या धीधांगश्रम राघो निपुनि, मति सुंदर पीय रांम जल । पादप यह जन जगत मैं, भक्ति सु मन निरबेद फल ॥ ३०२
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२. तेज । ३. नें । ४. साध ।
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रांका ।
वांका ।
चांदा |
दांदा ।
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