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राघवदास कृत भक्तमाल दरसन षट को भाव, कदै नांहीं प्रावै उर। साध रूप धरि भांड, राव पैं पाव दुहावै ।
भूप भेट करि कही, भेष पलट्यां दुख पावै। भक्त भांड साचौ भयो, जगत जाति नहीं जोइ है। गाथ सुनत नृप भक्त की, हरिजी सौं हित होइ है ॥२६८
भक्त भूप की टीका इंदव भूप भगत्त स भांड न पावत, है प्रभु कौं धन प्रांन न दीजै । छंद स्वांग धर्यो जन को सु पुजावत, नाचत भूप कहै इम कीजै ।
भौजन कौं करवाई धर्यो बसु, जोरि कहै कर यौं सब लीजै । भक्ति भई दिढ़वास न भावत, हाथ गहै कछु ल्यौ नहि छीजै ॥४८२
छपै
निष्टां अंतर भूप के, उतकष्ट-धर्म धुजता नहीं ॥ स्यांम ध्यान हरि भजन, और कौं नांहि लखावै। निसि दिन असे रहै, अर्धगो' भेद न आवै । सुपन मांहि नहीं सुद्धि, नाम अांनन तें निकस्यौ। वाम नाम सुनि प्रष्ण, दरबि बहु पति परि बकस्यौ । कजी भई मो भक्ति मैं, सुनि रानी बातें महीं। निष्टा अंतर भूप के, उतकष्ट-धर्म धुजता नहीं ॥२९६
__अंतरनेष्टो नृप की टोका इंदव भक्त तिया कहि भक्त नहीं पति, यौं मुरझाइ र सोचत भारी। छंद भेद न जांनत रैनि पिछानत, नाम रट्यौ मुखतै सु बिहारी।
नांम सुन्यौं पतनी सुख पावत, भोर भयो पति पैं धन वारी। पूछत है नृप देखि उत्साहहि, नांव कह्यौ जिव जात बिचारी ॥४८३ भूप तज्यौ तन सोच तिया मन, प्रीति इसी उर भेद न पायो। दीरघ सोक भयो सुधि नांहि न, नैंक लखीं न इसौ हित छायौ । प्रेम अतित भयो तिय कै तन, देह तजी इन ही यह भायो। है जिनकै यह सो लहिहैं वह, दूरि करै सब साच दिखायो ॥४८४
१. अधंगी।
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