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राघवदास कृत भक्तमाल
प्रगट गांध्रबी ब्याह सु, ताकौ कीयौ रास मैं। सकुंतला दुसकंत, पुत्र भरतादि जास मैं। प्रांन नृपति सुनि कुमन है, यह काहूपें नां भई। जक्त भक्ति बांकीक सीस, रामरेंनि रजु करि दई ॥३३५
रांमरेंनि को टीका इंदव पूनिव सर्द समाजहि निर्तत, रास-बिलास करयौ अति भारी। छंद भीजि रहे जुग रांम कही तिय, देंहि कहा दिज जो तुम प्यारी।
सोधि बिचारत है पुतरी प्रिय, रूपवती अनुरूप निहारी। सोचि परे सब जांइ रु ल्यावत, कान्ह बने उन देत कुमारी ॥५३८
छपे
मूल गुर गोबिंद संतांन सूं, राम बाम साच मतै ॥ साधां कह्यौ सु सबद, तांहि प्राचं उर प्रांन्यो । नवमां प्रेमां प्यार, दूसरौं धरम न जान्यौं। यह पको पन पाहि, गोत्र अच्युत प्रिय लागे ।
खीर-नीर सुबिचार, प्रांन कहूं मनहुं न पागै। भक्त सबै राजां कहैं, राघो नारांइन नौ । गुर गोबिंद संतांन सूं, राम बांम साचै मते ॥३३६
__ राजांबाई की टीका इंदव राजा रु राम मधुब्बन आवत, दाम रखे नहि संत जिमाये। छंद मारग कौं खरची न उदार सु, हाथनि मांहि करा दिठ आये ।
मोल हुते रुपया सत पांचक, नाभा गये तिन कौं पहराये । बोलि कही पति कौं लखि रीझत, ब्याज लये घरि आइ खिनाये ॥५३६
छपै
मूल जुगल बात खेमाल की, ते किसौर प्रादर करी ॥ पगनि घूघरू साजि बाजि, नग धरपैं निरत्यौ । कृष्ण कलस धरि सीस, ल्याय आपन जल बरत्यौ। नमल गिरा उद्यौत, भक्ति की रीति उचारन । सील सुद्ध रस रासि, साध पदरज सिर धारन ।
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