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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १६३ मों बन मैं बिन खेल बनै नहिं, काढ़त गारिन चोट हु दैगौ। चित भई मम ढूंढि र ल्यावहु, आत कनै तब चैन पगैगो। भोजन भात न ताहि बिना कछु, वा रिस जातहि भोग फबैगो। बेगि गये उन नीठि मनावत, ज्याइ कही अब कंठ लगैगो ॥५०३ बाहरि भूमि गयो हरि प्रावत, प्राकन डोडन मार मचाई। देख उठे इनहूं वहि मारत, भाव सखा सुख सार कहाई। बेर लगी बहु मातहु प्रावत, चालि घरां तजि ये अटपाई। सौच करयौ सदचार धरयौ मन, प्रेम मढ्यौ सुबिचारि कराई ॥५०४ भोग लगांवन मंदिर ल्यावत, मांगत है पहिलै मम दीजै । थारहि डारत जाइ पुकारत, कोप करयौ यह सेवन लीजै । आइ कही जन कौंन बिचारत, खोलि सुनांवत कान धरीजै । जोम रु पैलहि जावत है बन, मोहि न पावत यौं सुनि भीजै ॥५०५
छपे
छंद
मूल मधुपुरी देस जे जन भये, मम कृपा कटाक्ष ही राखियो ।
रामभद्र रघुनाध मरहट, बीठल पुनि बेरणी। दासू स्वामी चित उत्म, के सौं दंडोतां देगी। गुंजामाली जदुनंद, रामानंद मुरली।
गोविंद गोपीनाथ मुकंद, भगवांना सु धुरली। हरिदास मिश्र चत्रभुज चरित्र, रघुनाथ विष्ण-रस चाखियो। मधुपुरी देस जे जन भये, मम कृपा कटाक्ष ही राखियो ॥३१३
श्री गुंजामाली को टोका इंदव संतन कौ परताप बडौ ब्रज, मैं बसि है उन सौभ अपारा। छंद गुंजनमाल धरी जिम नाम सु, बास करयौ सु लहौर मझारा ।
पुत्रबधु बिधवाहि सुनावत, लै धन ग्रेकि गुपाल भ्रतारा। धौ हरि सेवन मांगत है तिय, यां परि वारतहूं जगसारा ॥५०६ पूजन वाहि दयौ धन ग्रे तिय, बास करयौ व्रज रीति सुनीज। ठाकुर पैं सुत औरन के भरि, डारत खोरहि सौ अति खोज। तारि दयो वह भोग न पावत, क्यूस सिमावहि तौ कछु जीजै । कोपि कही भरि है तब प्रातहि, हा अब खावहु ल्यावत लीजै ॥५०७
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