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________________ [ अ भूमिका में मूल और टीका के पद्यों को अलग से चिह्नित कर देने का कहा और आपने उसे अपना ही काम समझ कर कर दिया--इसके लिये मैं आपका आभारी हूँ। - ग्रन्थ का मुद्रण जोधपुर में हो रहा था, वहाँ से प्रूफ बीकानेर आने-जाने में अधिक विलम्ब होता, इसलिये प्रूफ संशोधन का कार्य मैंने महोपाध्याय मुनि विनयसागरजी को सौंपा और उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ सारे ग्रन्थ का प्रूफ संशोधन कर दिया। उनका और मेरा वर्षों से धर्म-स्नेह का संबंध रहा है, फिर भी उनका आभार प्रकट करना मेरा कर्तव्य है। प्रूफ संशोधन में उन्हें श्री गोपालनारायणजी बहुरा का मार्ग-प्रदर्शन भी मिलता रहा है। ग्रन्थ छप जाने के बाद इसकी अनुक्रमणिका बनाना प्रारंभ किया, तो एक और दिक्कत सामने आई कि ग्रन्थ में यद्यपि बहुत-सी जगह तो पद्यों के प्रारम्भ में भक्तों के नाम दिये हुये हैं, पर ऐसे भी बहुत से पद्य हैं, जिनमें शीर्षक का अभाव है। इसलिये उन पद्यों को पढ़ कर शीर्षक लगाते हुये विस्तृत अनुक्रमणिका बना देने का काम सिंहस्थल के रामस्नेही सम्प्रदाय के महन्त स्वामी भगवत्दासजी महाराज को दिया गया और उन्होंने बड़े परिश्रम से मेरी सूचनानुसार दो बार जाँच कर के अनुक्रमणिका तैयार कर दी, जिसे विद्वद्वर नरोत्तमदासजी स्वामी ने भी देख लेने की कृपा की है। इस सहयोग के लिये मैं महन्तजी व स्वामोजी का आभारी हूँ। श्री गोपालनारायणजी बहुरा ने भक्तमाल की जो प्रति बाद में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में खरीदी गई, उसकी सूचना दी और प्रति को बीकानेर के शाखा कार्यालय में भिजवा दी तथा प्रूफ संशोधन में भी सहायता को, इसलिये उनका भी आभार मानना मैं अपना कर्त्तव्य मानता हूँ। __ मेरी इच्छा थी कि ग्रन्थ में जिन जिन भक्तों एवं सन्तों का उल्लेख है, उनके सम्बन्ध में अन्य सामग्री के आधार से विशेष प्रकाश डाला जाय, पर यह कार्य बहुत समय एवं श्रम-सापेक्ष है। और चूंकि मूल ग्रन्थ गत वर्ष हो छप चुका था, इसलिये अधिक रोके रखना उचित नहीं समझा गया। सम्बन्धित सामग्री को जुटाने में भी कई महीने लगे। फिर भी पूरी सामग्री नहीं मिल सकी। अत: अपनी उस इच्छा का संवरण करना पड़ा। पाठकों को यह जानकारी दे देना उचित समझता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ को हिन्दी विवेचन या अनुवाद के साथ प्रकाशित करने का प्रयत्न श्री सुखदयालजी एडवोकेट कर रहे हैं। उन्होंने उसके कुछ पृष्ठों की प्रेस-कॉपी स्वामी मंगलदासजी को भेजी थी और मैंने उसे स्वामीजी के पास देखी थी। पता नहीं, वे उस कार्य को पूर्ण कर पाये या नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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