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भक्तमाल
ज्ञ ] यह प्रति सं० १९३३ में साध भगतराम ने रोझड़ी गांव में साध मोजीराम के लिये लिखी है। अभी यह प्रति भरतपुर राज्य के श्री कामवन के श्री गोकुल चन्द्रमा मंदिर के पुस्तकालय में गो० देवकीनन्दन प्राचार्य के पास है। विवरण संशोधन -
__ खोज विवरण में टीका का रचना काल सं० १८१८ लिख दिया गया है, पता नहीं, इसका आधार क्या है । नीचे जो टीका के रचनाकाल संबंधी पद्य उद्धत हैं, उससे तो १८५७ ही सिद्ध होता है। दूसरी महत्वपूर्ण गलती राघवदास का गोत्र 'चांडाल' लिख देना है। वास्तव में 'चांगल' शब्द को 'चांडाल' पढ़ लिया मया है, और इसी से इतनी शोचनीय मलती हो गई है, उद्धत पाठ भी अशुद्ध
और त्रुटित है। प्रति वृहद् संस्करण की है हो । सम्भव है, परिवर्तित संस्करण के जो पद्य मैंने परिशिष्ट में दिये हैं, उनमें आगे चलकर फिर परिवर्द्धन हुआ होगा।
___'राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' से प्रकाशित 'विद्याभूषण-ग्रन्थ-संग्रहसूची' के पृष्ठ ६० में प्रति नं० ११६ संवत् १९८३ की गोपीचन्द शर्मा लिखित है । इसकी पृष्ठ संख्या २०४ बतलाई गई है, बीच के ४ पृष्ठ नहीं हैं। वास्तव में, यह किसी हस्तलिखित प्रति की आधुनिक प्रतिलिपि ही है। सम्भव है, नम्बर A और B की ही यह नकल पुरोहित हरिनारायणजी ने करवाई हो। खोज करने पर और भी कुछ प्रतियाँ मिल सकती हैं। आभार-प्रदर्शन
सर्वप्रथम मैं स्वामी मंगलदासजी का विशेष आभार मानता हूँ, जिनको प्रेरणा से ही इस ग्रन्थ के सम्पादन का काम मैंने हाथ में लिया और समय-समय पर विविध प्रकार की सूचनायें व सहायता भी वे देते रहे। तत्पश्चात् मुनि जिनविजयजी का मैं आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन की स्वीकृति दी और पुरोहितजी के संग्रह की प्रतियाँ भिजवाईं।
__ ग्रन्थ की प्रेस-कॉपी तैयार हो जाने पर मेरे सामने यह दुविधा उपस्थित हुई कि हस्तलिखित प्रतियों में मूल और टीका के पद्यों का सर्वत्र स्पष्टीकरण नहीं था, अतः इनकी छंटाई कैसे की जाय ? संयोग से प्रो० सुरजनदासजी स्वामी बीकानेर डूंगर कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में पधार गये। उनको मैंने प्रेस कॉपी
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