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भूमिका
[ त्र उसमें ६२१ टीका की पद्य संख्या बाद देने पर मूल के ५६४ पद्य रहते हैं, जबकि अलग-अलग छन्दों को संख्या लिखी गई है। उनको मिलाने से ५६४ की संख्या बैठती है, अर्थात् ३० पद्यों का फर्क रह जाता है। प्रतिलिपि करने वालों ने, पता नहीं, ऐसी गड़बड़ी क्यों कर दी है।
अभी तक राघवदास के भक्तमाल के केवल मूलपाठ की एक भी प्रति प्राप्त नहीं हुई और न टीकाकार चतुरदास के समय के पहले की लिखी हुई प्रति ही मिल सकी, इसलिए यह निर्णय करना कठिन है कि राघवदास ने मूल में कितने पद्य बनाये थे और उसमें कब कितने 'द्य बढ़ाये गये ? प्रस्तुत संस्करण में मूल और टीकाकार के पद्यों की जो संख्या छपी है, उसमें भी कुछ गड़बड़ी रह गई है। क्योंकि जिन प्रतियों की नकल की गई थी, उन्हों में पद्यों की संख्या देने में गड़बड़ कर दी गई है। प्रति नम्बर A और B के अनुसार मूल पद्य संख्या ५५५ और टीका के पद्यों की संख्या ६३६ छपी है । प्रति में मूल पद्यों को संख्या ५४४ दी हुई है और टोका के पद्यों की संख्या ६४१ । यह दोनों संख्यायें मिलाकर लेखन-प्रशस्ति में दो हुई कुल पद्यों की संख्या में भी अन्तर रह जाता है। केवल C प्रति को ही लें, तो ५४४ और ६४१ दोनों को मिलाकर ११८५ की संख्या तो ठीक बैठ जाती है, पर इसी प्रति को प्रशस्ति में मूल पद्यों की संख्या ५५३ और टीका के पद्यों की संख्या ६२१ लिखी है, उससे मिलान नहीं बैठता। मालूम होता है कि टीका को पद्य संख्या तोनों प्रतियों में ६२१ बतलाने पर भी उससे अधिक है, क्योंकि A और B प्रति में पद्य संख्या ६३६ और C प्रति में ६४१ दी हुई है। अतः मूल की तरह टीका में भी कुछ पद्य पोछे से बढ़ाये गये हैं, यह तो निश्चित-सा है। परिवद्धित संस्करण में तो काफी पद्य बढ़े हैं ।
उपरोक्त प्रतियों के अतिरिक्त दो अन्य प्रतियों को जानकारी भी मुझे है, पर उनको मैं प्राप्त नहीं कर सका। उनमें से एक प्रति का विवरण ना० प्र० सभा के सन् १९३८ से ४० तक के १७ वें त्रैवार्षिक विवरण के पृष्ठ ३०२ में छपा है। उस प्रति को पत्र संख्या १३६ और ग्रन्थ परिमाण ६५१६ श्लोकों का बतलाया गया है, जो ऊपर दी गई प्रतियों के परिमाण से करीब डेढ़ा बढ़ जाता है। इसकी भी लेखन-प्रशस्ति में गड़बड़ है, उसमें श्लोक संख्या ५००० की बतलाई है। छन्द संख्या भी बढ़ गई है। यथा
. छप्पय ३५३, मनहर १८७, हंसाल ४, साखी ८५, चौपाई २, इन्दव १००२ (?) और टीका की इन्दव और मनहर छन्दों की संख्या ६६६ लिखी है।
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