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राघवदास कृत भक्तमाल
परमारथ के काज, आप ग्यारह बर बीका। सिध कीये पाषांरण, तीर गोदार नदी का। नाद बजाये बिद्रपुर, परचा दीया बरकती।
ससार अबध निसतारनै, करनधार गोरख-जती ॥२.६ ईदव इंद ज्यूजिद की जीवनि गोरख ग्यांन-घटा वरख्यौ घट धारी। छंद नृप निन्यारणवै कोड़ि कीये सिध, प्रातम' और अनंतन तारी ।
बिचरं तिहुंलोक नहीं कहूं रोक हो, माया कहा बपुरी पचिहारी।
स्वादन सप्रस यौं रह्यो अपरस, राघो कहै मनसा मन जारी ॥२८० छपे छंद धर्म सील सत राख तें, चौरंगी कारिज सरे ॥
अदभुत रूप निहारि, दौर कर मांई पकरयौ। दांवरण लीयो फारि, जोरि करि बाहरि निकरयौ। रांणी करी पुकार, पुत्र अच्छया ही जाया ।
राजा मन पछिताइ, हाथ पग दूरि कराया। राघो प्रगटे परमगुर, कर पद ज्यू के त्यू करे । धर्म सील सत राख तें, चौरंगी कारिज सरे ॥२८१ धुनि ध्यान सहित मल धूंधली, पुर पटरण परबत रहे ॥
पाप पासि इक सिष, सु तौ अति प्राग्याकारी। भिक्षा मांगन काज, फिरत सो नगरी सारो। करै मसकरी लोग, खेचरी भीख न पावै । माथै लकरी ढोइ, बेचि रोटी करि ल्यावै। राघो चांदी बूझि सिर, पट्टण सव दट्टरण कहे। धुनि ध्यान सहित मल धुंधली, पुर पट्टण प्रबत रहे ॥२८२ भोगराज भ्रम जांनिकै, भक्ति करि है भरथरी ॥
तर तीबर-बैराग, त्रिलोकी विणकर लेखो। गरक भजन के मांहि, ग्यान सम प्रात्म देखी। कंचन प्राधारित तिजारै रहि करि कीया।
सूली देणै लग्यां, हरया अंकूर सु लीया । गुर गोरख किरपा करी, अमर जहाँ लौ धरत री। भोगराज भ्रम जांनि के, भक्ति करी है भरथरी ॥२८३
१. प्रातमा।
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