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राघवदास कृत भक्तमाल
मनहर
अजर जराइ के बजाइ के बिग्यांन तेग,
कलि मै कबीर असे धीर भये धर्म के। मारचौ मन मदन से सदन सरीर सुख,
काटे माया फंदन से बंधन भ्रम के। निडर निसंक राव रंक सम तुल्य जाकै,
सुभ न असुभ माने में न काल-कर्म के। जीति लीयो जनम जिहांन मैं न छाड़ी देह,
राघो कहै राम मिलि कीन्हे काम मर्म के ॥३५२
मूल ज्यूं नारांइन नव निरमये, त्यूं श्री कबीर कीये सिष नव ॥ प्रथमहि दास कमाल, दुतीय है दास कमाली। पद्मनाभ पुनि त्रितीय, चतुरथय राम कृपाली। पंचम षष्टम नीर खीर, सप्तम सुनि ग्यांनी ।
अष्टम है ध्रमदास, नवम हरदास प्रमांनी। नवका नव नर तिरन कौं, जन राघो कहयौ पयोध भव । ज्यं नारांइन नव निरमये, त्यं श्री कबीर कीये सिष नव ॥३५३ कबीर कृपा से ऊपजी, भक्ति कमाली प्रेम पर ॥
सदा रही लैलोन, सील की अवधि अपारा। क्षमा दया सतकार, झूठ जान्यौं संसारा । श्री गोरख मन भई, कमाली पारिख लीजै।
अलख जगायो प्राइ, हमारौ पत्र भरोजे । राघौ डारयौ येक बर, उमंगि पत्र परियौ सु घर । कबीर कृपा से ऊपजी, भक्ति कमाली प्रेम पर ॥३५४ श्री कबीर साहिब्ब थे, ज्ञांनी पायो ज्ञान कौ ॥ पछिम दिसि उपदेस, कोयौ परमारथ काजै। भक्ति ज्ञान बैराग, सहित श्रबोपर राजै। काम क्रोध मद मोह, लोभ मछर नहीं काई । धर्म सील संतोष, दया दीनता सुहाई ।
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