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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १७९ राघो रोस रती न उर, दूरि कोयो अभिमान कौं। श्री कबीर साहिब्ब पैं, ज्ञांनी पायरे ज्ञान कौं ॥३५५ श्री. कबीर कृपा करी, धर्मदास परि धर्म की॥ करता सति साहिब्ब, और दूसर नहीं जाने। भक्ति धरी अति गूढ़, देखिकै सब हैराने । चौकौ अरु आरती, पान परवानां दीजै। बंदी छोडिहि संत, सेव मन बच क्रम कीजै । गर्दै मंडल धांम भल, राघो कही सु मरम की। श्री कबीर कृपा करी, धर्मदास परि धर्म को ॥३५६ गुर धर्मदास को धर्म धनि, नीकै धारयौ सिष इन ॥
चूड़ामनि चित चतुर, पुत्र कुलपती बंस के । सर्बगि साहिबदास, मूल दल्हंण अंस के। जाग२ जग सं तरक, भक्ति भगता कौं प्यारी।
मुर्ति गुपाल श्रुति सांधि, सकल सत-संगति प्यारी। सिष पांच प्रसिध या कबित मैं, राघो नाती द्वै कहिन । गुर धरमदास को धर्म धनि, नोंके धारचौ सिष इन ॥३५८
इति कबीर साहिब को पंथ
__अथ श्री दादूदयालजी कौ पंथ बरनन दादू दीनदयाल के, जन राघो हरि कारिज करे ॥टे.
दल भये सांभरि सात, सवनि के भोजन पायौ। प्रकवा सं मिले, तेजमय तखत दिखायौ। काजी को कर गल्यौ, रूई को रासि जराई।
चोरी पलटे अंक, समद मैं भयाज तिराई। साहिपुरै साहज मिले, हरि प्रताप हाथी डरे । दादू दीनदयाल के, जन राघो हरि कारिज करे ॥३५६ दादू जन दिनकर दुती, बिमल बृष्टि बांरणी करी ॥
ज्ञान भक्ति बैराग, भाग भल सबद बतायो । __ कोड़ि गूंथ को मंथ, पंथ संखेप लखायौ ।
१. कू। २. जागू। ३. सुति ।
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