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चतुरदास कृत टीका सहित
छौ
अथ श्रीकबीरजी साहिब को पंथ बरनन-मूल पूरब महि प्रगट भये, जन कबीर निरगुन भगत ॥ arat बाहर निकसि, कहूं को जात जुलाहौ । बृक्ष तरें इक बाल परचौ सो बोल-बुलाहौ । ताकौ ले घर गयौ, सौंपि तिरिया कू दोनों । ग्याती सकल बुलाइ, बहुत उद्दब तिन कोन्हौं । बड़े भये रांमहि भजै, काहू सूं नांहीं सकत । पूरब महि प्रगट भये, जन कबीर निरगुन भगत ॥ ३४६
निसंक मन ॥
त्यागियो ।
जगत भगत घटदरस सूं रहे कबीर परब्रह्म गुर धारि, भरम सब द्वीत पंडो जरत उबारि, राजगृह प्रेम पागियो । बालिध है बर पाइ, भक्त षटदरसन पोषे । ब्राह्मण झूठहि न्यौत्या ये वह महंत संतोषे । स्याह सिकंदर जीतियो, सभा बोचि नरस्यंध बन । जगत भगत षटदरस सू, रहे कबीर अथाह थाह पाऊं नहीं, क्यूं जस कहूं श्री राम निरंजन रूप, जाति जग कहै जुलाहौ । कासी करि बिश्राम, लीयौ हरि भक्ति सु लाहौ । हींदू तुरक प्रमोधि, कोये अग्यांन तं ग्यांनी । सबद रमैंरणी साखि, सत्य सगला करि मांनी ' ।
१. जांनि ।
+'स' प्रति का प्रतिरिक्त पद
मोटो भगत कबीर, भगत सब मांहे सोरोमन । जामन इमृत भाव, पीय रस भगत करौ मन । इक रांम रांम रस रांम जप मुख इम इमृत रस । भगतिन हित वैराग, कथ नीत हरि जस । कुल नीचौ करणी बडी, कब लग बात बखानिये । भगतन के सिर सेहरो, असे कबीर जानिये ॥
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प्रमांनंद प्रभु कारणं, सुख सब तज्यौ सरी (र) कौ ।
प्रथा थाह पांऊँ नहीं, क्यौं जस कहूं कबीर कौ ॥ ३५१
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निसंक मन ॥३५० कबोर कौ ॥
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