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राघवदास कृत भक्तमाल जसू-स्वामी की टोका इंदव अंतरबेद रहै जसु स्वामिन, संतन सेवन खेत बुहावै। छंद बैल हरे इन कौं कछु ठीक न, स्यांम वसे हलकै जुतवावै ।
पात भये बृज के नर पैठहि, देखि गयो' घरि जाइ र पावै । बार फिरे छय ठीक भई उन, पूछि र आनि दये नहि पावै ।।४७६ देखि प्रतापहि भाव भयौ उरि, बैल दये हरि पाय परे हैं। दीन कहै मुख प्राय लही रुख, दीनदयालहि दास करे हैं। छाडि दयो हर नो सुध होतस, संतन सेवन माग परे हैं। धान खिनांवहि दूध दही पुनि, आवहि साध लड़ात खरे हैं ॥४७५
नंददासजी वैष्णु को टोका गांव बरेलि नजीक हवेलिहु, नंद सुदास दिजै जन सेवै । दोष करै दिज लै बछिया सव, खेतहि डारत गारि न देवै । साधन सू लरि है स हत्यारहि, आवत हौ नहि जानत भेवै । जाइ जिवाई दई जन खेतहि, साखत भक्त भये पग लेवै ।।४७६
छंद
मूल मनहर राघो रँगनाथजी को सीस आयौ सनमुख,
बारमुखी बारंबार लेत अति वारणां। मैं हूँ महा मधिम अछोप मन बच क्रम,
तुम प्रभू प्राणनाथ पतित उधारणां। मुकट चढ़ावत मगन भई मातंग ज्यूं, ..
जै जै कार पुर महि गृह-गृह वारणां । गनिका मुक्ति भई भई च्यायूं जुग मधि, च्यायूं जीति गई जन्म नांहीं जौग धारणा ॥२९६
बारमुखो की टीका इंदव बारमुखी अतिहास सुनौं घर, माल भरचौ नहिं प्रावत कांमैं । छंद संत बरे पुर धाम लख्यौ सुछ, खोलि दई कटि चाहि न दामैं। __ वाहरि आइ निहारत हंसनि, भाग जगे नहि जानत नांमैं ।
थार भरयौ महुरै धरि मुंतन, पाक करौ अरु भूषन स्यांमैं ।।४७७
१. गये। २. मुक्त।
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