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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १२३ श्रीजगन्नाथ रणछर रट, नर-नारांइरण घांमजी। ये मुक्ति भये माठा-पती, जन राघो जपि रामजी ॥२४१
श्री प्रतापरुद्र गजपति जु को टीका इदव रुद्रप्रताप कह्यौ गजपत्तिहि, भक्ति लई प्रभु तौहु न देखे । छंद कोटि उपाइ करे लस न्यासहु, हौ अकुलात किहूं मम पेखै ।
नृत्य करै जगनाथ रथै मुख, पाय परयौ नृप भाग बसेखे । लाय लयौ उर प्रेम बुड़े सर, भाव भयौ दुख देत निमेखै ॥३७३
॥ इति श्री मध्वाचार्य संप्रदा ॥
मूल छपै श्री श्नाराइण ते २हंस, तिनं ३सनकादिक बोधे ।
उनकै ४नारद-रिषी, निवासाचार्य सोधे । ६विष्णाचार्य परसोतमां, बिलास संरूपा। १०माधव के ११बलिभद्र, १२कदमां १३स्यांम अनूपा। पुनि १४गोपाल १५कृपाचार्य, १६देवाचारिय भन । १७सुन्दरभट के १८वांवनभट, जिनके १९ब्रह्मभट गन । २०पद्माकर जग पद्मवत, २१श्रवनभट को जग श्रवस । २२नीबादित प्रादित समां, राघो ये द्वादस दस ॥२४२ जन राघो रत रांम सूं, यौँ हरिजन दीनदयाल है। यम १सनक २सनंदन सुमरि, ३सनातन ४सनतकुमारा। नींबादित बड़ महंत, सु तो उनका मत धारा। सुरति बिरति हरि भज्यों, करी नीको बिधि सेवा ।
इष्ट येक गोपाल, बड़ौ देवन को देवा। संप्रदाइ विधि सुतन की, सत' महंत दिगपाल है। जन राघो रत राम सूं, यों हरिजन दीनदयाल है ॥२४३
टीका इंदव नाम निबारक ख्यात भयौ यम, ग्राम जती यकता दल दीयो। छंद भोजन बेर लगी निसि आवत, जीमत ने पद बेद सु लीयो।
१. संत।
२. लली।
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