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________________ भक्तमाल चतुरासि लषि सिरजि चराचर, रिजक सबनि को मेल । व्यापक ब्रह्म सकल जल थल मधि, जीव सीव संग खेले ॥३॥ विधि शंकर सनकादिक नारद, भक्त पारषद संगी। त्रिगुण रहित त्रयकाल कला प्रति, तारणतिरण त्रिभंगी ॥४॥ चार वेद चहुँ जुग जस गावत, पावत पार न कोई। राघौदास सुमरि निसवासर, यौं विन मुक्ति न होई ॥५॥ राग-मारु वचन वसे हिरदै गुरु के। परा परी वायक उन्नायक, कहे हुते धुर के ॥टेक॥ षदल चतुर अष्ट दश द्वादश, षोडस उभै मुहर के। ग्यांन ध्यान उनमान प्रापरणे, हरि हरि कहत निधरकै ॥१॥ अमृत भई अचानक अन्तर, अघ मेटे उर के। सोई प्रब साषि राषि मन माही, दास भये वा घर के ॥२॥ राम रमापति सुमर रैण दिन, भ्रम भंजन भव तर के। राघौ हाथ गहे उन हित करि, भाग उदै भये नर के ॥३॥ राग-सोरठि हरि अब अवधि पूगी प्राव ! काम निकल नहीं तुम विन, राखि बूडत नाव ॥टेक॥ महा विपति विदेश सांई, रहत चिन्ता ताव रे। मो अनाथ प्रतीतनी पर, करो राम पसाव ॥१॥ तरस मेटौ प्राइ मेटौ, विरहनी ऋतु दाव। पोव पावन जीव कीजे, परौं तेरे पाव ॥२॥ पपीहरा ज्यों प्रारण टेरे, अखंड एक लाव । दास राघौ कर विनती, सुनि विश्व भर राव ॥३॥ मनहर हरीश्चन्द्र सत विश्वामित्र चले जब हरिश्चन्द्र वेचन को, आजक अयोध्यापुरी नावं द्रष्टि देखनौ । राह मघि राहो कीन्हीं काल व्है कसौटी दई, अमित अगाध दुख नावै लिखि लेखनौ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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