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चतुरदास कृत टीका सहित
क्रौंच पासि सर दुग्ध, साक दधि को नमलसर ।
पहुकर सागर सुधा, पार सोहै कंचन-धर। परबत लोका-लोक मैं, बिटवोक चहुवोर । सपत-दीप सातूं समुद्र, भक्त तिते सिर-मौर ॥१११
जंबुदीप नवखंड के, सेवक सेब्यन कू भजू ॥टे० बीच इलाबत राज, सेस सिव अनुग सु जांनय । भद्रा हयग्रीव भद्रश्रव, हरिबर नृस्यंघ प्रहलादय । किं पुरसुरांम हनुमंत, भरथ नारांइन नारद । केतमाल श्री काम रभिक, मछ मनुहु बिसारद । हिरन्यषंड कच्छ अरजु मां, कुरु बराह पृथी सजू। जंबुदीप नवखंड के, सेवक सेबिन कौं भजूं ॥११२ राघो ततक्षरण तीहि सभा, हरि फेरयो नारद गुनी ॥
राति-दिवस उनमन रहै, हरि ही कू देखे । टगा-टगी धुनि ध्यांन, पलक नहीं लगै निमेखै । जिनकी उलटी चाल, काल-जित कूरम अंगी।
भर्म कर्म सूं रहत सदा, अबगति के संगी। स्वेतदीप मधि सत-पुरष, सदा नृबर्त निश्चल मुनी। राघो ततक्षरण तीहिं सभा, हरि फेरचौ नारद गुनी ॥११३
टोका इंदव रूप उपासिक स्वेतहि बासिक, नारद देखन कौं चलि आये। छद नैन निहारत मो मति पागत, सैंन करी हरि जाह फिराये।
कुंठ गये दुख पाइ कही हरि, साथ लये फिरिक वतलाये । ताल पिख्यौ खग ध्यान रह्यौ लगि, बूझत है रिष राम जनाये ॥६० संबत्सहस बदीत भये उर, भाव फल्यौ न नहीं जल पीवै। स्वाद लगै वह खावत पीवत, नांव बिनां पल येक न जीवें। पाइ दयो जल नांखि दयो उन, फेरि करयौ उसही भरि लीवै। देखि खुले चक्षुदे परदक्षण, भाव भयो खग सेव सु कोवै ॥६१ दीप चलौ अब भाव भलौ उन, जाइ रु देखत वै प्रभु गावै।
आवत हौ जन आरति है गइ, प्रांन तजे रु तिया फिर आवै। १. स्वेतह।
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