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राघवदास कृत भक्तमाल
प्रभु सात देह धरि सबही के जयें' घरि,
हरि येक रूप पीछे हूं रहीजिये ॥५५३ काजी फिरि कही दादू मारौंगो सही अब,
रूई घर महीं बहु बिनां आगि बरी है। बैल बिन जारे उन सबही उधारे अजु,
पद सुनि धारे उर बासनां सु जरी है । साहिपुरै२ आये तहां रूप द्वै दिखाये हम,
भूले फैटा छरी घरि भावनां सु फरी है। खाटू मैं झुकायौ हाथी दादू कै है साथी प्रभु,
चरन छवाइ सुंडि सीस परि धरी है ॥५५४ सातसै ही साह तामैं सात कोरि माल भरयौ,
गरयौ हैं गरब झ्याज सागर मैं अरी है। अपने जो इष्टदेव सबही संभारे अजु,
पचि पचि हारे बहु बूड़े ते जु खरी है। देसहु ढूंढार तहां मांनस्यंघ राज करै,
सहर आंवेर जहां गावै दादू हरी है। ऊपर लेखन मैं जु चढ़ि येक साहूकार,
दादू दादू कह्यौ टेरि फेरि झ्याज तरी है ॥५५५ सागर के तटि देव नगनिकटि जहां,
सातसै ही साह सेठ नंद आदि आये हैं। दादू गुर आये जल बूडत जिवाये बहु,
कपरा बटाये अर्ध माल लै खुवाये हैं। नांनां पकवान गिरि मेवा मिष्टांन जामैं,
दिज अरु साध षट-दरसन जिमाये हैं। राघो कहै संन्यासी हिंगोल जु कपिल मुनि,
प्रांबांवती आइ गुनी बचन सुनाये हैं ॥५५६ अकबर महिमां सुनि दादू जु बुलाइ लये,
गये बेगि गैल मांहि ढील नां लगाई है।
१. मैंयें।
२. साहिबपुर। ३. खाट ।
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