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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १३५ येक बरस्स रहे रस-सागर, लीन भये सु सिलोक पढे हैं। ... जात बृदाबन देखन कू मन, मारग मैं इक ठौर रढे हैं। सोर सुन्यौ बड़ आप गये सर, न्हात तिया लखि नैन गड़े हैं। ऊठि चली वह लार लगे यह, खैर धसी घर द्वार खड़े है ।।४०८ आत भयो पति देखि बड़े जन, क्यूर खड़े तिरिया सु जनाई। आप कही घर पांवन कीजिय, लै चरणांमृत यौं मन आई। . मांहि गये मन प्रारति मेटन, गांवन रीति जु देत चिताई। अंग बनाइ कही तिय सुं पति, संत रिझाइ हरी सुखदाई ॥४०॥ अंग बनाइ चली कर थारहु, ऊँच अटा जित है अनुरागी। झंझन जाइ खरी कर जोरि रु, देखत ही मति नून दु भागी। . सूइ मंगावत वै फिरि ल्यावत, फेरि' दई अखियां यह लागी। आंनि कही पति सं सब बातन, जाइ परयौ पगि सो बड़भागी ॥४१० पाप करयौ हम संत दुखावत, हो तुम संत हमैं अपराधी। ब्याज रहौ हम सेव करें तुम, सेव करी सबही बिधि साधी । ऊठि चले द्विग भूत छुड़ाइ र, खेम भयौ उर प्रांखि न लाधी। जाइ बसे बनि भूख लगी पनि, आप जिमावत जांनि अराधी ॥४११ हाथ गहाइ चले तर के तरि, जोर छुड़ात न छोड़त नीकौ । जोर करै नहि वोउ हरै कर, लेत छुड़ाइ न छूटत ही को। यौं करि आइ लयौ सु बृदाबन, पीतर सौं जग लागत फीको । लाल बिहारिहु आइ मिले, मुरलो बजई यह भावत जी कौ ॥४११ नैन खुले रवि ऊगत अंबुज, देखि सरूपहि चाहि भई है। बंसि सुनि रस मिष्ट सुरै मद, कान भरचौ मुख भास लई है। जांनि प्रताप चितामनि को मन, जैति चिंतामनि आदि दई है। गृथ करची करुणांमृत पंथज, जुगल्ल कयौ रसरासि-मई है ॥४१२ लाल मिले बन मांहि सुनी चलि, पात चिंतामनि हेत जनायो। मांन दयो उठि दूध रु भातहि, देत भयो हरि ताहि पठायौ। लेत नहीं तुम कौं पठयौ प्रभु, नांथ हमैं कर दे तब भायौ । पात नहीं जुग देखत कौतुग, स्यांम जब इक और खिनायौ ॥४१३ .
___ इति नीबादति संप्रदा संपूरण १. फोरि। २. जोति। ३. सिनायो।
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