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राघवदास कृत भक्तमाल
व
अथ षट-दरसन बरनन
प्रथम सन्यासी बरनन छपै यम दत्तात्रे मत धारि उर, संक्राचार्य प्रति दिये ॥
तिनकै सिष भये चतुर, सरूपा पद्माचारय । निरा टोटका सुमरि, गाइ पुनि' उदरा पारय । इनते है दस नाम, तीरथ प्राश्रम बन पारन ।
सागर परबत गिरी, सरस्वती भारथ कारन । पुरी जती पर जोति गणि, जन राघव कतहु न छिपे । दत्तात्रे मत धारि उर, संक्राचार्य प्रति दिये ॥२६६ मोह न द्रोह मम्मत न माया रम्मत सुभाया,
__जु असे भये दत्त-देव दिगंबर। प्रजोनी प्रसंग नहीं तन भंगन,
प्रांन तरंग जु सोभत है तप तेज कौ संवर। लीयो तत छांरिग महाजन जांरिण,
धाये परवांरिण जुधारे पचीस गुरू धर अंबर । राघो कहै जद प्राइ मिले जदि,
यौं बदि छाड़ि है ग्यांन कयंबर ॥२६७ उत्म धर्म सथापन, संक्राचारय परगटे ॥ पाखंडी अनीसुरी, अरू जैन कुतरकी। वोधमती उद-सृखली, बिमुखी नर नरकी। अमरादिक सर्व जीति के, सति-मारग लाये । ईस्वर को प्रोतार जांनि हरि जन हरखाये। राघो भक्ति उदै किरणि, अग्यांनी तम भ्रम घटे ।
उत्म धरम सथापन, संक्राचारय परगटे ॥२६८ इंदव रुद्र को रूप अनूप महा जनम्यौं, गुजरात मैं संकराचारिय। वंद दत्त सूमिल्लि के मत्त ले इत्त नौं, नप प्रमोधि कीये कुलि पारय । :जैन सौं जीते हैं बैन बिज भइ, राम भगत्ति थपी बिसतारय ।
राघो कहै तत तारिग मंत्र सू, दूरि कीयो सब को भ्रम भारय ॥२६९
१. युति उदरी।
२. जातिके।
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