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राघवदास कृत भक्तमाल छपै. बिलमंगल राघो कहै, स्यांम कृपा को परबिदत ॥
उक्ति जुक्ति पुनि चोज, कबित कोये करूणांमृत । संत जनन प्राधार उर, जहां रावल सुभ कृत। प्रभु कर स्वैकर देई, छाय धरि के छुटवाये ।
सबल गिरणौंगौं तब, जब हिरदा ते जाये। चितामनि उपदेस करि, गुर सोमगिरी धारे सदित । बिलमंगल राघो कहै, स्याम कृपा को परबिदत ॥२६५
टीका इंदव ब्राह्मन बुद्ध रहै कृसनां-तटि, पाइ चिंतामनि बुद्धि बही है। छद लाज तजी हिय राज भयौ उस, रैनि दिनै उत जात सही है।
तात कनागत साधि रह्यौ चित, सेस रहैं दिन चालत ही है । नीर चड्यौ सलिता निसि नाव न, हेत घणौ दुःख पाइ कही है ।।४०३ तार परा नहि देह रहै परि, मित्र मिलै यह बात भली है। जकि परयौ कछू नांहि डर्यो मन, बाहि कर्यो कित पात' चली है। पार न पावत डूबत जावत, प्रातमड़ा चढि नांवड़ली है। जाइ लग्यौ तटि पाय चल्यौ झटि, पाट जड़े लखि आँखि खुली है ॥४०४ सांप लटक्कि रह्यौ लखि लाव तूं, मूंठिनि सू छति जाइ चढ्यौ जू । ऊपर के २ पट लागि रहे फिरि, कूदि परयौ ग्रत मांहि गड्यौ जू । जागि उठी करि दीपक देखत, है बिलमंगल नांहि पड्यौ जू । नीर नहावत चीर उठावत, हा किम आवत तोइ बढ्यौ जू ।।४०५ नाव पठावत लाव भुलावत, सो मन मैं हम जांनि लई है। चालि दिखाइ भई कछु स्वांनिहि, देखि भवंगम पाहि दई है। ज्यूं मन मांस र चांम लग्यौ मम, यौँ हरि लाइ सयांनपई है। प्रात भयें हम तौ भजि हैं प्रभु, तो मन की अब तू जनई है ।।४०६ नैन खुले हरि रूपहि चाहत, रंग उमंग सु अंग न मावै । बीन बजावत स्यांम रिझावत, कोटि बिर्ष सुख चित्त न आवै। बीति गई निसि प्रोउ भये रसि, मारग आपन आपन जावै। सोमगिरी अभिरांम करे गुर, कौंन कहै उपमां उर भावै ॥ ४०७
१. मोन।
२. को।
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