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चतुरदास कृत टीका सहित
मनहर
छंद
छपै
१. क
गाये ।
राति दिवस राघौ कहै, धरम न चूकौ लग्यौ लटेरा लटिकि कैं, केसौ केवल गोपी कलि मनु श्रवतरी, प्रमानंद भयौ प्रेम बाल श्रवसथा तीन, गोपि गुण परगट नहीं श्रचम्भा कोइ, श्रादि को सखा राति दिवस सब रोम उठे, जल बहै द्विगन तें । कृष्ण सोभितन गलित गिरा, गद-गद सुमगन तैं । संग्या सारंगी कहौ', सुनत कांन श्रवे सकर । गोपि कलि मनु अवतरी, प्रमांनंद भयो प्रेम पर ॥ २६१
सुहाये ।
इंद सागर सूर भई सलिता बुधि, बोध छंद प्रेम कौ प्रेम बढ्यौ उर श्रन्तर, यौं
धांम सूं ।
रांम
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सूं ॥ २६०
पर ॥
प्रेम कौ प्रवाह सुरण सागर गिरा कौ पुंज,
चोज कौं चतुर प्रमांनंद प्रबीन है । गावत गुनांनबाद गोबिंद गोपाल हरि,
राम नांम हिरदै घरि भयौ लिवलीन है । बीनती बिकट नट नृति करें राति-दिन,
नाचत निराट दीनांनाथ श्रागें दीन है । राघौ कहै बिरहै मिलाप सूं मिलाप कीन्हौं,
बिधनां सूं बेध्यौ प्रांत जैसे जल मींन है ॥२६२ सुरात सूर की काबि कबि, सिर धुने र धनि धनि करें ॥ रांमांइण भागवत, भक्ति दसधा सुरिण सारी । परसताव को पुंज, चोज चुरिण काढ़ी न्यारी । सकल पराकृत संसकृत, सिंध सम मथ्यौ सवायौ ।
करूणां प्रेम ब्रिवोग, श्रादि अनुक्रम सौं गायौ । बालमीक-कृत ब्यास-कृत, जन राघो पद पटतर धरं । सुनत सूर की काबि कबि, सिर धुने र धनि धनि करें ॥ २६३
निरोध लोयो जिन पांणी । उभली मुख ह्वे प्रति बारणी । जैसे सुण्य समयौ तहां तैसौई, सोई निबाह कीयौ जहां जांरगी । राघो कहै सुरसति बर बारि ज्यूं, यौं सर्ब चोज सबद मैं प्रांरगी ॥ २६४
२. गुरण । ३. खौं ।
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