________________
१३२ ]
राघवदास कृत भक्तमाल
खीर नीर निखारि, सुगम करि श्रब कौं पायौ ।
अनन्य धर्म के कबित, अन अमृत के प्याले। . मुरलीधर की छाप, छिप नहीं श्रबत चाले। जन राघव बल भजन के, गौंड देस कियौ धर्म-धुज । यौं हूवो हरिबंस प्रताप तें, चहुं दिसि परगट चतुरभुज ॥२५६
टीका
इंदत्र गौंडहु देस भगत्ति नहीं अणु, माणस मारि र मात चढावै । छंद जाइ जहां' उन मंत्र सुनावत, दे सुपनौं सब गांव जगावै ।
धाय करौ तुम चतुरभुजें गुर, नां करिहौ मरिहौ पुर आवें। सिष्ष किये धरि स्वांग जिये उन, पाव लिये बहुत सुख पावै ॥३६६ भोग लगावत साध लड़ावत, भागवतं कहि भक्ति बधावै। लै धन चोर चल्यौ उन संगहि, प्रात धनी जन मैं छिपि जावै। दक्षत दूसर जोनि भई सुनि, स्वांमिन 4 डरि कान फूकावै । प्रांनि गह्यौ कहि मैं न लयौ अब, हाथि दई दिबि नांहीं जरावै ॥४०० भूपति झूठ लखी कहि मारहु, संतन आय कलंक दयौ है। मारन जात भये न सके सहि, नीर बहै द्रिग कैत लयौ है। भूप कहै तुम साच तजौ जिन२, स्वामिन को परताप भयौ है । राज सुनी महिमां सु हुवो सिष, पेम-सन्यौ उर भीजि गयौ है ॥४०१ खेत पक्यौ लखि साध सु तोरत, सूकि मुखै रखवार पुकारे। नांव कह्यौ सुनियो सु हमारहि, आप सुनी जब होत सुखारे। लै परसाद गये जन सांम्हन, मो अपनाइ र आज उधारे। धांम सु भोजन भांतिन भांतिन, ज्यांत भये चरचा सु उचारे ॥४०२
लग्यौ3 लटेरा लटिकि के, केसौ केवल राम सौं ॥ कबित सवैईया गीत, भाखि भगवंत रिझायौ। सुरसुरानन्द परताप, पाप हरि हिरदै पायौ । जथा-जोगि जस गाय, लोक परलोक सुधारयौ । परसरांम-सुत सरस, सकल घट ब्रह्म बिचारचौ।
१. तहां।
२. जन। ३. लगौं, लयो।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org