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भक्तमाल
नर
संसार
श्रगम
तन पाइ उपाइ तजि भूतागति भर्म धर्म कछु सुजस रहै श्रादर धरणौ । परि हाँ ! राघौ कर निहाल इष्ट भज श्रापणौ ॥५॥ विमुख जान जिन देहु प्रतिथि गृह वार थे। टूक गास घटि खाउ स्वकीय प्रहार थे ॥ सत मैं सुं सत वांटि सत्य हरि राखि है । राघो साषि है ॥१२॥
परि हाँ ! जन
धर्मराइ धर्म
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यहै गुरु बूझिये | कीजिये ॥
पद -
राग - रामगिरी
त्राहि त्राहि त्राहि नाथ हाथ गहो दास कौ । भीर परं धीर धरो टेहूं विरद तास कौ ॥ टेक ॥ काम क्रोध लोभ मोह गर्जत बजाये लौह,
भूलि गयो ग्यांन ध्यान मारे डर तास कौ ॥१॥ त्रिगुण त्रिदोष भर्म प्रेरिकै करावे कर्म, काल यौं राघौ यौं पुकारे राम याही डर प्राठों नाम,
पसारे गाल करनहार नाश कौ ॥२॥
पार सो न मारे हों तो पारचौ तेरे गास कौ ॥३॥ राम - टोडी
सकल शिरोमणि नांव जरी ।
यो धसि लावं त्यौ सुख पावें, घट ही मांहे रहत परी ॥टेक॥
ज्यां सेती मृतक मुख बोल, श्रमृत भाखत चिन्त रहे नहिं कबहूँ, श्रातम पांचो तत्त तीनों सुरण तांतू, महौकम गांठ
होत
वस्त
साचि धरी ॥
खोले सोई सपूत शिरोमणि, पावत बैठि इकान्त प्रारण जध राखे, निस दिन राघौ कहै लहै सोई गुरगमि, सुक्षम सुलभ खरी ॥३॥ राग - श्रासावरी
हरि परदेश हूँ काहे देऊँ पाती, कोई न मिले एसा सजन संगाती ॥टेक॥ हा ! हा ! करि करि हौं हरि हारी, कोई न कहै मोहे वात तुम्हारी ॥१॥ श्रारति श्रजक बहुत उर मेरे, श्रहोनिस निस चात्रक ज्यूं टेरे ॥२॥
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गुणां
भरी ॥
हरी ॥१॥
परी ॥
परी ॥२॥
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