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राघवदास कृत भक्तमाल
पखापखी कौं छाड़ि भज्यौ हरि सास उसासा । भीख बांवनी प्रसिधि, सु तौं सारे जग होई ।
जा मांहै सब भाव, जाहि भावै सो सोई। संतदास गुर धारि उर, राघो हरि मैं मिलि गये। दादू दीनदयाल के, नाती उभै सुभट भये ॥५२५ दादू दीनदयाल के, नाती दास सर्बज्ञ मनूं ॥
बांरणी बहु बिसतरी, मांहि गुर हरि भक्तन जस । सपतदीप बरणियां, गूथ गुणसागर प्रति रस। पंथपरक्षा आदि ग्रंय, बहु पद अरु साखी। __ महिमां बरणी नांव, भक्ति बिरदावली भाखी। राघो ठाकुर पद परसि, इन पायौ अनुभौ घनं । दादू दीनदयाल के, नाती दास सर्बज्ञ मनूं ॥५२६ दादू दीनदयाल के, नांती दोइ दलेल मति ॥
नृस्यंघ करी निज भक्ति, प्रेम परमेसुर माहीं। छपै सवईया कीये, दोष दस दीये दिखाई। अमरदास के सबद, सूर के पटतर दीजै । बिरह प्रेम संमिलत, चोज अनप्रास सुनीजै । राघो हूं बलि रहरिण की, नोकै सुमरे प्रांनपति । दादू दीनदयाल के, नाती दोइ दलेल मति ॥५२७ इम प्रमपुरष प्रहलाद के, सिष हरीदास सिरोमनि भयो॥ कुछवाही कुल प्रादि, नाम पहली हौ हापौ। पुनह परसि प्रहलाद, तज्यो कुल बल क्रम प्रांपौ। कोमल कुछव कुवार, नहिं चंचलता हासी। सम दम सुमरन करे, मोक्ष-पद जुगति उपासी। यौं हदफ मांरि हरि कौं मिल्यौ, जन राघो रटि अनहद गयौ। परम पुरष प्रहलाद के, सिष हरीदास सिरोमनि भयौ ॥५२८ प्रम-पुरष प्रहलाद के, इतने सिष सर्ब धर्म-धुर ॥ तिन मधि बड़ बांनत, हेत हापौजी होई। दीरघ अवर अनंत, बुरौ जिन मानौं कौई। चरणदास भजनीक, तिलकधारी है केसौ।
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