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भूमिका तात मात भ्रात कुल कुटुम्ब छतीसौं पौन, राघौं गनि धून सब ही के काज सारे हैं ॥३॥
ग्रन्थ करुणा-वीनतो इन्दर ब्रह्मा शिव शेष गणेश नमो सनकादिक नारद पाय परौं।
प्रणाम कहौं परमेश्वर सौं जिन छाडहू नाथ अनाथ डरौं । हरि मैं गुलमा सुनि हौं वलमां तुम को दे पोठ यों गात गरौं । कार पुकार लगौं अब के जन राघौ कहै शरण उवरौं ॥१॥ हा.! हा! धनी दुख देत गनी तुम ही तुम एक अधार हो मेरे। जानत हो परवेदन की परमेश्वरजी प्रभु न्याव है तेरे ॥ जोर करे जिन को समझावहु साहबजी चढ़ि सांक के केर। राघौ अनाथ अतीत की हे हरि भीर परे भगवन्त निवेरै ॥४॥ कौन उपाय करौं हरिजी वरजी न रहें मनसा विगरानी। भ्रमित अभक्ष प्रहार अहोनिशि नीच क्रिया करि पीवत पारणी ॥ धर्म के पंथ में पांव धरे नहिं पाप की गैल फिर फहराणी।
राघौ कहे विपरीत विकारणि चाल कुचाल मिथ्या मुख वाणी ॥१४॥ मनहर बन्दगी तुम्हारी बीच अन्तर करत , नीच,
जानत हो जानराय कहूं कहा टेरि के। मोह करै द्रोह गति काम को कटाक्ष प्रति,
क्रोध वडो जोध जुग लोभ मारै हेरि के ॥ मैं तो रावरो गुलाम वीनती सुनो हो राम,
पारत है मेरी मांम दशो-दिशि घेर के। रघवा दुरयौ है भाजि शरण तुम्हारे राजि,
दोनबन्धु दीन जान राखल्यौ निवेरि के ॥१८॥ इन्दव भीर परे भगवन्त भलो विधि देहु यहै तुम को न विसार।
जाव शरीर सवै धन सर्वस जो जिये थें जगदीश न टार॥ खार अनी वहनी विषहू विष पत्र म परे कहूँ धर्म न हारे।
रघवा सिदकै कियो साहबजी वरिया शत सहस्रा प्रारण तुम्हारे ॥२१॥ मनहर कामरी के भौरे हाथ मेल्यौ दीनानाथ जी मैं,
मैं ते माया मोह द्रोह रीघ घट घेरो है।
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