SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तमाल पूजन ही प्रावत हू अब पछतावत हूँ, ___ मै तो मानी हार हरि मारग मै पैरो है ॥ भगतवछल भगवन्त नहिं लेहु अन्त, ऊवरौं न और ठौर एक बल तेरौ है। रघवा विचारो रंक मन में प्रत्यन्त शंक, राम भरि लेहु अंक काल प्रायो नेरौ है ॥३६॥ ग्रन्थ चितावणी इन्दव समये सुमरयो नहिं राम धणी सु घणी जम की तन त्रास सहेगो। पाठ र वीस में शोश ज्यूं सूम को दै दशहू दिशि प्राग दहैगो । जोजन द्वादश घाट घरै को सौ ता मधि मूरख मूरि मरेंगी। राघौ कहै निगुरेनि गुसांइ को प्रावत ही जम कंठ गहैगो॥१॥ मैं मन देख्यो महा निरपत्रप एक रती हू त्रिया नहिं ताकै । प्रेत ज्यों प्रारण को नाच नचावत कामना सूं कबहू नहिं थाकै ॥ इन्द्रिन द्वार अनीति कर अति पापि परनारि परद्रव्य को ताक । राघो कहै अपस्वारथ सौं रुचि प्रीति नहीं परमारथ नाके ॥७॥ ___ कवित्त अङ्ग संगति को मनहर दास की पूरण पास संगति कर निवास, पाप ताप होत नाश गहै गुणसार जी। पाय है परम सुख राम नाम जाकै मुख, वीसरै न एक चुख प्राणन आधार जी॥ सोई जन जाकै तन नांव सौ रहै लगन, घर वन राखे मन सोई स्वामी कार जी। राघो गुरु-मंत्र प्रति राखे रैण-दिन रति, सुमरि सुमरि सिध साध भये पार जी ॥३॥ गुरुसिख सम्वाद ग्रन्थ -शिष्य वचन चौपई नमो नमो मम गुरु सत स्वामी । देव निरंजन अन्तर्यामी । प्रानन्दरूप महा सुखसागर । सदा मगन हिरदै हरि नागर ॥१॥ तुम भजनीक परम ततवेत्ता । स्वामी कहि समझावो एता॥ वर्तमान प्रति विकट गुसांई । कैसे करि रहिये या माई ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003832
Book TitleBhaktmal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghavdas, Chaturdas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1965
Total Pages364
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy