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दोहा
दोहा
भूमिका
गुरु-वचन
धर्म विना धरती सकुचानी । धर्म बिना घट वर से पांरणी ॥ धर्म विना कलि मैं घन थोरा । राजा लोभी दुष्ट डंडोरा ॥२१॥ परजा चोर चुगल विसतारी । साचे हू को मुशकिल भारी ॥ मंत्री दृष्ट करावरण मूढ़ा | परजा के ल्यं दोऊ कूढ़ा ॥२२॥ काचे जती कलेश न त्यागे । करें मोह माया सूं लागे ॥ कलि में कल सौं वरतत रहिये । सनै सनै सत-संगति गहिये ॥२४॥ साकत को न पान न लीजं । हत्याकार ठे पाँव न दीजै ॥ नुगरा नर को अन्न रु पांरगी । लियाँ होय क्षय बुधि श्ररु वांगी अब कछु बात कल मैं नोकी । सो तूं सुन सिख जीवन जीकी ॥ नाँव लेत नरक न जाई। और जुगन सूं या अधिकाई ॥२७॥ एसो नाँव कलू में राख्यौ । शुक मुनि परिक्षत सौं यूं भाख्यौ ॥ जिहिं वन सिंह सहज मैं गाजै । जंबुक सुनत जीव ले भाजै ॥ ३० ॥
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राघौ प्राघो सुख सरचौ सुन सतगुरु के वैन ॥ हृदै कमल मधि करिणका, तहां हेरि हरि सैन ॥ ३२ ॥ ग्रन्थ- उत्पत्ति-स्थिति चिंतामणि - दोहा चौपाई में - समाप्ति स्थल श्रीहरि श्रीगुरु सों कही, सो श्री गुरु कहि मुझ । रघवा रंचक गम भई, श्रीगुरु पै ब्रह्मा व्यास वशिष्ठ दिग, वालमीक ब्रह्मसुता शंभुसुवन, गुरणग गवरि रवि रविसुत को मान गुण, उपगारी शिव
पायो गुरु ॥ ३६४ ॥
शुक
सूत ।
को
पूत ॥ ३६५॥
शेष ।
इन मिलि मोहे श्राज्ञा दई, रटि राघव राम नरेश ॥ ३६६ ॥
कहि उत्पति स्थिति कथा, जन राघौ के हिरदै वसै, याहि वांचि सीखे सुने, राघौ यौं रामहि रटं, धरै निरन्तर afa कोविद पंडित मिसर, सुनि जनि डाटहु मोहि ।
सकल बतायो भेव । श्री हरीदास गुरण ते उपजे
मम वांरणी बालक वचन, जनि कोई मानो द्रोहि ॥ ३६६॥
॥ इति ॥
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गुरुदेव ॥ ३६७॥
ज्ञान ।
ध्यान ॥ ३६८ ॥
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