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राजा चत्रभुज को टीका
जोजन चौकिहु, प्रात सुनै जन जाइ र ल्यावै ।
छंद
इंदव सैर चहुं दिसि दास पधारत है जब धांमहि, रीति करै सु छ मधि गावै । भूप सुनी इक बात अनूपम, खोलि खजांन सबैहि रिभावे । पात्र कुपात्र विचार नहीं उर, यों कहि कैं नृप सीस धुनावै ॥ ५२६ भागवती दिज भूप कनें हुत, भक्त कही इम चित्त न धारौं । आसय पाइ सुकौं नय सौं पढि, हैं हिरिदै महि हेत अपारौ । पारष लेवन भाट पठावत, भेष करचौ कहि दास द्रवारौ। भूलि गयो कुल जाइ बखानत, जांनि लये जिन माहि पधारौ ॥ ५३० मासक जात रह्यो चित प्रावत, दास खरौ दरि जाइ सुनावो । जाहु निसंक गयौ नृप प्राक्त, वै घर रीति करी उर भावौ । साध भगति सुलक्षन नांहिन, पारिख लै न पठ्यौ कि नचावौ । कोस दिखाइ दयौ द्रबि निर्तत, कौड़ि जरी लपटाइ चलावौ ।।५३१
इ कही नृप पर्यंत मैं सब, द्रब दिखाइ र वैं हु दिखायौ । खोलि जरी लखि है मधि कौड़िहु, भूप बिचारत नां चित प्रायौ । पंडित भागवती स महापट, रैंनि प्रलोकि र आइ सुनायौ । भेष भगत्ते जरी यह मांनहु, संपट मांहि सरीर लखायौ ।। ५३२ पाव लये नृप आप पधारहु, आसय ल्याय भलें समझावौ । जात भये दिज पाइ परयौ भुज, पेम भयौ प्रति ग्यांन सुनावौ । सीख मर्ग नहि चालन देवत, कोस खुलावत लैत न दावौ । साहु कीर उभै इक द्यौ मम, देत लई दिज कै मन चावौ ।। ५३३ प्रात सभा नृप बात चलै बहु, रांम भूप सु बूझत बात कहौ सुनि, ल्यौ इन पंक्षिन हैं हरि प्यारे । कोटि जिभ्या सु बखान करों तउ, पार न भक्ति पगें सिर धारे ।
कहै सब ही खग झारे ।
ल्यौ खग कौं मन स्यांम रह्यौ लगि, रीति भली मिलि ये सु पधारे ।। ५३४
छपै
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राघवदास कृत भक्तमाल
मूल
संतन कौ सनमान बहु, भूपति कुल मैं इन करचौ ॥
सूरजमल श्ररु
रामचंद, टोडे पूजे जन ।
साधु
सेये
मेरत,
जैमल
साचै
मन ।
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