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राघवदास कृत भक्तमाल
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कंतो को टोका प्रीति न देखत हूं पिरथा बिन, भूत र देव बिपत्ति न मागे । चाहत है मुख लाल हि देखन, होहु दयाल कि द्यौ बन बागै। ब्याकुल देखि भरी प्रभु प्रांखिन, फेरि लये धन प्रांन सु जागै । अंतर ध्यान भये सुनि कानन, ता छिन ही मछ ज्यूं तन त्याग ॥६८
द्रोपति की टीका द्रोपति बात कहै दख कौंनस, बँचत अंबर ढेर' भयो है। द्वारिक बासि कह्यौ सु हुतौ ढिग, स्वैपुर जाइ र आइ रह्यौ है। श्राप दिवांवन भेजि द्रु बासहि, जात युधिष्टर सीस नयौ है। धोइ चरी तिय आइ कही नृप, सोच भयो कत कृष्ण गयो है ।।६६ भाव वती सुनि बाकि भयो मन, कृष्ण पधारि करयौं मन कामं । भूख लगी कछू देहु कहै हरि, सोच हिये अन है नहि धांम। पूरण ह जग मांहि रह्यौ पगि, नांहि छिपाइ कहै इम स्यांम। साकहिं पात लयौ जल सूं सब, धापि तिलोक दुर्बासहु नांमं ।।७०
मूल छप्पै नांरांइन तैं बिद्धि भयौ, बिध तें स्वांभू-मनु । स्वांभू-मन के प्रेय बरत, तास कै अगनीधर गन । अगनीधर के नाभि, जि. रिझयौ करतारा ।
तास पछोपै प्रगट, रिषभदेव सु अवतारा। रिषभदेव के सत सुवन, जन राघो दीरघ भरत पखि। दसक्षत भुज भये नव जोगेसुर, अवर इक्यासी राज-रिष ॥३५ तन मन धन अपि हरि मिले, जन राघो येते राज-रिष।
उतांनपात पृयबरत, अंग मुचकंद प्रचेता। जोगेसुर मिथलेस पृथु, प्रक्षित उधरेता। हरिजस्वा हरि-बिस्व रघु, गुरण जनक सुधन्वा ।
भागीरथ हरिचंद सगर, सति बरत सुमन्वा । प्राचीन ब्रही इष्वाक रघु, रुकमांगद कुरगाधि सुचि । भरथ सुरथ सुमती रिभु, अल अमूरति रैग रुचि ॥३६
१. टेर।
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