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परिशिष्ट १
[ २५३ हृदो कियो सुबज्र समानो। उर अन्तर नहिं उपज्यो ज्ञानूं । नीति अनीति कीयो नहिं खेदू । निरण करि बूझ्यो नहिं भेदू ॥१५ काटि चरन करि नाख्यो कूपू। महाप्रवीन सु अजब अनूपू ॥ तहां मछिन्द्र गोरख पाये। दरद देखि अरु अति दुख पाये ॥१६ करुणा करै भये कृपालू । बूझे पीर सु प्रेम दयालू ॥ कौन चूक सासना दीनी। सो तो हम पै जाय न चीन्ही ॥१७ माई दियो मिथ्या दोषू । राजा अति मान्यो मन रोषू ॥ सोति सुत अति भई सु कूरी। किये पिता हाथ पग दूरी ॥१८ बसै सुनि धू गांइ किहि बासू। अपने पिता को नाम प्रकासू ॥ बसै सहीपुर मांडल गाऊं। नृपति शालिवाहन है नाऊं ॥१६ नां हमसों कोई भई बुराई। कर्म-संजोग न मेट्यो जाई । लिख्यो विधाता त्यूही होई। कोटि कियां हूं मिटै न सोई ॥२० अब मोहि राखो निकट हजूरी। चरन-कमल सू करो न दूरी ॥ भाग बड़े थे भेटे प्राई। तुम बिन दुती न और सुहाई ॥२१
भाग बड़े थे पाइये, निरमल साधू सन्त । आनि मिलाप गैव मैं, कृपा करी भगवन्त ॥२२ आये सद्गति करन कों, निन्यानवे कोटि नरेश। भूपन का छन भवन सों, दे दे गुरु उपदेश ॥२३
दोहा
चौपाई तब अमृत फल करसों अर्यो। चौरंगी अपनों कर थर्यो ।।
दियो मुदित है सिर पर हाथू । होहु सहायक गोरखनाथू ॥२४ गुरू मच्छन्दर सिष चौरंगू। उपजी अनभै भक्ति अभंगू ।। आरती बड़ी सु आत्म मांही। भगवन्त नाम विसारै नांहीं ॥२५ इहां रहो तुम द्वादस वधू । सुमरि सनेही मन करि हर्के ।। रमे मछिन्द्र दे प्रमोधू । गोरख रहे सिखावन बोधू ॥२६
टीका इंदव द्वादश वर्ष हि नेम लियो गुरु, गांव सु पट्टण पाउ' रहाई । छन्द ग्राम गयो सिष भीष न पावत, एक कुम्हारि उपाय बताई।
१. पहाड़।
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